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पिछले वचनों के आधार पे

बिल्‍दद बोलना जारी रखता हैं।

फिर मनुष्य परमेश्‍वर की दृष्टि में धर्मी कैसे ठहर सकता है?... जो स्त्री से उत्‍पन्‍न हुआ है

इस बात पर जोर दें कि परमेंश्‍वर के लिए मनुष्य का अच्छा होना असंभव है।

वह कैसे निर्मल हो सकता है?

"एक आदमी परमेंश्‍वर के लिए कभी भी धर्मी नहीं हो सकता।"

जो स्त्री से उत्‍पन्‍न हुआ...निर्मल हो सकता है

"वह जो एक महिला से पैदा हुआ है वह उसके लिए साफ या स्वीकार्य नहीं हो सकता है।

धर्मी,निर्मल हो सकता

"साफ - कि, उसे स्वीकार्य किया जा सके"

जो स्त्री से उत्‍पन्‍न हुआ है

"किसी भी आदमी“

देख

"वास्तव में"

उसकी दृष्टि में चन्द्रमा भी अंधेरा ठहरता

"परमेंश्‍वर के लिए चाँद पर्याप्त उज्ज्वल नहीं है"

तारे भी निर्मल नहीं ठहरते

"उसे लगता है कि सितारे भी पुरी तरह सही नही हैं"

फिर मनुष्य की क्या गिनती...आदमी कहाँ रहा जो केंचुआ है

“आदमी पूर्ण नहीं है।“

जो कीड़ा है

"जो कीडे की तरह बेकार है"

आदमी

“मनुष्य“