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मनुष्य अपनी ही अभिलाषा से...परीक्षा में पड़ता है।
“बुरा काम करने की लालसा मनुष्य ही में है।”
खिंचकर और फंसकर
“बुरी इच्छा उसे खींचती है और उसे फंसा लेती है।”
अभिलाषा गर्भवती होकर पाप को जनती है और पाप जब बढ़ जाता है तो मृत्यु उत्पन्न करता है।
अभिलाषा, पाप और मृत्यु को मानवीय प्रकृति दी गई है। अभिलाषा को स्त्री रूप में व्यक्त किया गया है जो मनुष्य को यौन संबंध के लिए आकर्षित करती है। “पाप” उसका शिशु है। जब वह शिशु व्यस्क हो जाता है तब वह “मृत्यु” बन जाता है। इसकी तुलना अभिलाषाओं के सुमभोग से ली गई है। जो पाप में बदलकर अन्त में शारीरिक एवं आत्मिक मृत्यु लाता है।
धोखा न खाओ
“किसी के धोखे में न आओ” या “स्वयं को धोखा न दो”। (यू.डी.बी)