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3.3 KiB

एक मुकम्मल तर्जुमा

इस हिस्से का मक़सद इस बात को यक़ीनी बनाना है के तर्जुमा मुकम्मल है। इस हिस्से में, लाज़मी है के नये तर्जुमे को माख़ज़ तर्जुमे से मोवाज़ना किया जाए। जैसा के आप दोनों तर्जुमे का मोवाज़ना करते हैं, ख़ुद से ये सवालात पूछें:

  1. क्या तर्जुमे में इसका कोई हिस्सा ग़ायब है? दूसरे अल्फ़ाज़ में, क्या तर्जुमे में उस किताब के सारे वाक़यात शामिल हैं जिसका तर्जुमा किया गया था?
  2. क्या तर्जुमे में उस किताब के सारे आयात शामिल हैं जिसका तर्जुमा किया गया था? (जब आप माख़ज़ ज़बान तर्जुमे की आयत नम्बर पर गौर करते हैं, क्या माख़ज़ ज़बान तर्जुमे में सारे आयात शामिल हैं?) बाज़ औक़ात तर्जुमो के दरमियान आयत नंबर में इख्तेलाफ़ात होते हैं। मिशाल के तौर पर, बाज़ तर्जुमों में बाज़ आयात को एक साथ जोड़ा जाता है या बाज़ औक़ात कुछ आयात को हाशिये में रखा जाता है। अगरचे इन क़िस्मों के इख्तेलाफ़ात माख़ज़ तर्जुमा और हदफ़ तर्जुमा के दरमियान हो सकते हैं, फिर भी हदफ़ तर्जुमा को मुकम्मल समझा जाता है। दीगर मालूमात के लिए, देखें मुकम्मल क़ाफ़िया बन्दी.
  3. क्या तर्जुमे में ऐसी कोई जगह है जहाँ लगता है के कुछ छूट गया है, या ऐसा लगता है के माख़ज़ ज़बान तर्जुमे में पाए जाने वाले पैग़ाम से मुख्तलिफ़ पैग़ाम मौज़ूद है? (अल्फ़ाज़ और तरतीब मुख्तलिफ़ हो सकते हैं, लेकिन ज़बान जिसे मुतर्जिम ने इस्तेमाल किया है उसे वही पैग़ाम देना चाहिए जैसा माख़ज़ ज़बान तर्जुमे में है।)

अगर कोई ऐसी जगह है जहाँ तर्जुमा मुकम्मल नहीं है, तो इसका एक नोट बनाएँ ताके आप इस पर तर्जुमा टीम के साथ गुफ़्तगू कर सकें।