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\id 1CO
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\h 1 कुरिन्थियों
\toc1 1 कुरिन्थियों
\toc2 1 कुरिन्थियों
\toc3 1co
\mt1 1 कुरिन्थियों
\s5
\c 1
\s अभिवादन
\p
\v 1 पौलुस की ओर से जो परमेश्‍वर की इच्छा* से यीशु मसीह का प्रेरित होने के लिये बुलाया गया और भाई सोस्थिनेस की ओर से।
\v 2 परमेश्‍वर की उस कलीसिया के नाम जो कुरिन्थुस में है, अर्थात् उनके नाम जो मसीह यीशु में पवित्र किए गए, और पवित्र होने के लिये बुलाए गए हैं; और उन सब के नाम भी जो हर जगह हमारे और अपने प्रभु यीशु मसीह के नाम से प्रार्थना करते हैं।
\v 3 हमारे पिता परमेश्‍वर और प्रभु यीशु मसीह की ओर से तुम्हें अनुग्रह और शान्ति मिलती रहे।
\s पौलुस का परमेश्‍वर को धन्यवाद
\p
\s5
\v 4 मैं तुम्हारे विषय में अपने परमेश्‍वर का धन्यवाद सदा करता हूँ, इसलिए कि परमेश्‍वर का यह अनुग्रह तुम पर मसीह यीशु में हुआ।
\v 5 कि उसमें होकर तुम हर बात में अर्थात् सारे वचन और सारे ज्ञान में धनी किए गए।
\v 6 कि मसीह की गवाही तुम में पक्की निकली।
\p
\s5
\v 7 यहाँ तक कि किसी वरदान में तुम्हें घटी नहीं, और तुम हमारे प्रभु यीशु मसीह के प्रगट होने की प्रतीक्षा करते रहते हो।
\v 8 वह तुम्हें अन्त तक दृढ़ भी करेगा, कि तुम हमारे प्रभु यीशु मसीह के दिन में निर्दोष ठहरो।
\v 9 परमेश्‍वर विश्वासयोग्य है*; जिस ने तुम को अपने पुत्र हमारे प्रभु यीशु मसीह की संगति में बुलाया है। (व्य. 7:9)
\s कुरिन्थुस की कलीसिया में विभाजन
\p
\s5
\v 10 हे भाइयों, मैं तुम से यीशु मसीह जो हमारा प्रभु है उसके नाम के द्वारा विनती करता हूँ, कि तुम सब एक ही बात कहो और तुम में फूट न हो, परन्तु एक ही मन और एक ही मत होकर मिले रहो।
\v 11 क्योंकि हे मेरे भाइयों, खलोए के घराने के लोगों ने मुझे तुम्हारे विषय में बताया है, कि तुम में झगड़े हो रहे हैं।
\p
\s5
\v 12 मेरा कहना यह है, कि तुम में से कोई तो अपने आप को “पौलुस का,” कोई “अपुल्लोस का,” कोई “कैफा का,” कोई “मसीह का” कहता है।
\v 13 क्या मसीह बँट गया? क्या पौलुस तुम्हारे लिये क्रूस पर चढ़ाया गया? या तुम्हें पौलुस के नाम पर बपतिस्मा मिला?
\p
\s5
\v 14 मैं परमेश्‍वर का धन्यवाद करता हूँ, कि क्रिस्पुस और गयुस को छोड़, मैंने तुम में से किसी को भी बपतिस्मा नहीं दिया।
\v 15 कहीं ऐसा न हो, कि कोई कहे, कि तुम्हें मेरे नाम पर बपतिस्मा मिला।
\v 16 और मैंने स्तिफनास के घराने को भी बपतिस्मा दिया; इनको छोड़, मैं नहीं जानता कि मैंने और किसी को बपतिस्मा दिया।
\p
\s5
\v 17 क्योंकि मसीह ने मुझे बपतिस्मा देने को नहीं, वरन् सुसमाचार सुनाने को भेजा है, और यह भी मनुष्यों के शब्दों के ज्ञान के अनुसार नहीं, ऐसा न हो कि मसीह का क्रूस व्यर्थ ठहरे।
\s मसीह की शक्ति और परमेश्‍वर का ज्ञान
\p
\s5
\v 18 क्योंकि क्रूस की कथा नाश होनेवालों के निकट मूर्खता है, परन्तु हम उद्धार पानेवालों के निकट परमेश्‍वर की सामर्थ्य है।
\v 19 क्योंकि लिखा है,
\q “मैं ज्ञानवानों के ज्ञान को नाश करूँगा,
\q और समझदारों की समझ को तुच्छ कर दूँगा।” (यशा. 29:14)
\p
\s5
\v 20 कहाँ रहा ज्ञानवान? कहाँ रहा शास्त्री? कहाँ रहा इस संसार का विवादी? क्या परमेश्‍वर ने संसार के ज्ञान को मूर्खता नहीं ठहराया? (रोम. 1:22)
\v 21 क्योंकि जब परमेश्‍वर के ज्ञान के अनुसार संसार ने ज्ञान से परमेश्‍वर को न जाना तो परमेश्‍वर को यह अच्छा लगा, कि इस प्रचार की मूर्खता के द्वारा विश्वास करनेवालों को उद्धार दे।
\p
\s5
\v 22 यहूदी तो चिन्ह चाहते हैं, और यूनानी ज्ञान की खोज में हैं,
\v 23 परन्तु हम तो उस क्रूस पर चढ़ाए हुए मसीह का प्रचार करते हैं जो यहूदियों के निकट ठोकर का कारण, और अन्यजातियों के निकट मूर्खता है;
\p
\s5
\v 24 परन्तु जो बुलाए हुए हैं क्या यहूदी, क्या यूनानी, उनके निकट मसीह परमेश्‍वर की सामर्थ्य, और परमेश्‍वर का ज्ञान है।
\v 25 क्योंकि परमेश्‍वर की मूर्खता* मनुष्यों के ज्ञान से ज्ञानवान है; और परमेश्‍वर की निर्बलता मनुष्यों के बल से बहुत बलवान है।
\s केवल प्रभु में घमण्ड
\p
\s5
\v 26 हे भाइयों, अपने बुलाए जाने को तो सोचो, कि न शरीर के अनुसार बहुत ज्ञानवान, और न बहुत सामर्थी, और न बहुत कुलीन बुलाए गए।
\v 27 परन्तु परमेश्‍वर ने जगत के मूर्खों* को चुन लिया है, कि ज्ञानियों को लज्जित करे; और परमेश्‍वर ने जगत के निर्बलों को चुन लिया है, कि बलवानों को लज्जित करे।
\p
\s5
\v 28 और परमेश्‍वर ने जगत के नीचों और तुच्छों को, वरन् जो हैं भी नहीं उनको भी चुन लिया, कि उन्हें जो हैं, व्यर्थ ठहराए।
\v 29 ताकि कोई प्राणी परमेश्‍वर के सामने घमण्ड न करने पाए।
\p
\s5
\v 30 परन्तु उसी की ओर से तुम मसीह यीशु में हो, जो परमेश्‍वर की ओर से हमारे लिये ज्ञान ठहरा अर्थात् धार्मिकता, और पवित्रता, और छुटकारा। (इफि. 1:7, रोम. 8:1)
\v 31 ताकि जैसा लिखा है, वैसा ही हो, “जो घमण्ड करे वह प्रभु में घमण्ड करे।” (2 कुरि. 10:17)
\s5
\c 2
\s पौलुस की उद्घोषणा
\p
\v 1 हे भाइयों, जब मैं परमेश्‍वर का भेद सुनाता हुआ तुम्हारे पास आया, तो वचन या ज्ञान की उत्तमता के साथ नहीं आया।
\v 2 क्योंकि मैंने यह ठान लिया था, कि तुम्हारे बीच यीशु मसीह, वरन् क्रूस पर चढ़ाए हुए मसीह को छोड़ और किसी बात को न जानूँ।
\p
\s5
\v 3 और मैं निर्बलता और भय के साथ, और बहुत थरथराता हुआ तुम्हारे साथ रहा।
\v 4 और मेरे वचन, और मेरे प्रचार में ज्ञान की लुभानेवाली बातें नहीं*; परन्तु आत्मा और सामर्थ्य का प्रमाण था,
\v 5 इसलिए कि तुम्हारा विश्वास मनुष्यों के ज्ञान पर नहीं, परन्तु परमेश्‍वर की सामर्थ्य पर निर्भर हो।
\s आत्मिक ज्ञान
\p
\s5
\v 6 फिर भी सिद्ध लोगों में हम ज्ञान सुनाते हैं परन्तु इस संसार का और इस संसार के नाश होनेवाले हाकिमों का ज्ञान नहीं;
\v 7 परन्तु हम परमेश्‍वर का वह गुप्त ज्ञान, भेद की रीति पर बताते हैं, जिसे परमेश्‍वर ने सनातन से हमारी महिमा के लिये ठहराया।
\p
\s5
\v 8 जिसे इस संसार के हाकिमों में से किसी ने नहीं जाना, क्योंकि यदि जानते, तो तेजोमय प्रभु को क्रूस पर न चढ़ाते। (प्रेरि. 13:27)
\v 9 परन्तु जैसा लिखा है,
\q “जो आँख ने नहीं देखी*,
\q और कान ने नहीं सुनी,
\q और जो बातें मनुष्य के चित्त में नहीं चढ़ी वे ही हैं,
\q जो परमेश्‍वर ने अपने प्रेम रखनेवालों के लिये तैयार की हैं।” (यशा. 64:4)
\p
\s5
\v 10 परन्तु परमेश्‍वर ने उनको अपने आत्मा के द्वारा हम पर प्रगट किया; क्योंकि आत्मा सब बातें, वरन् परमेश्‍वर की गूढ़ बातें भी जाँचता है।
\v 11 मनुष्यों में से कौन किसी मनुष्य की बातें जानता है, केवल मनुष्य की आत्मा जो उसमें है? वैसे ही परमेश्‍वर की बातें भी कोई नहीं जानता, केवल परमेश्‍वर का आत्मा। (नीति. 20:27)
\p
\s5
\v 12 परन्तु हमने संसार की आत्मा* नहीं, परन्तु वह आत्मा पाया है, जो परमेश्‍वर की ओर से है, कि हम उन बातों को जानें, जो परमेश्‍वर ने हमें दी हैं।
\v 13 जिनको हम मनुष्यों के ज्ञान की सिखाई हुई बातों में नहीं, परन्तु पवित्र आत्मा की सिखाई हुई बातों में, आत्मा, आत्मिक ज्ञान से आत्मिक बातों की व्याख्या करती है।
\p
\s5
\v 14 परन्तु शारीरिक मनुष्य परमेश्‍वर के आत्मा की बातें ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वे उसकी दृष्टि में मूर्खता की बातें हैं, और न वह उन्हें जान सकता है क्योंकि उनकी जाँच आत्मिक रीति से होती है।
\v 15 आत्मिक* जन सब कुछ जाँचता है, परन्तु वह आप किसी से जाँचा नहीं जाता।
\q
\v 16 “क्योंकि प्रभु का मन किस ने जाना है, कि उसे सिखाए?”
\m परन्तु हम में मसीह का मन है। (यशा. 40:13)
\s5
\c 3
\s मनुष्यों का अनुसरण उचित नहीं
\p
\v 1 हे भाइयों, मैं तुम से इस रीति से बातें न कर सका, जैसे आत्मिक लोगों से परन्तु जैसे शारीरिक लोगों से, और उनसे जो मसीह में बालक हैं।
\v 2 मैंने तुम्हें दूध पिलाया*, अन्न न खिलाया; क्योंकि तुम उसको न खा सकते थे; वरन् अब तक भी नहीं खा सकते हो,
\p
\s5
\v 3 क्योंकि अब तक शारीरिक हो। इसलिए, कि जब तुम में ईर्ष्या और झगड़ा है, तो क्या तुम शारीरिक नहीं? और मनुष्य की रीति पर नहीं चलते?
\v 4 इसलिए कि जब एक कहता है, “मैं पौलुस का हूँ,” और दूसरा, “मैं अपुल्लोस का हूँ,” तो क्या तुम मनुष्य नहीं?
\s परमेश्‍वर के दासों की भूमिका
\p
\v 5 अपुल्लोस कौन है? और पौलुस कौन है? केवल सेवक, जिनके द्वारा तुम लोगों ने विश्वास किया, जैसा हर एक को प्रभु ने दिया।
\p
\s5
\v 6 मैंने लगाया, अपुल्लोस ने सींचा, परन्तु परमेश्‍वर ने बढ़ाया।
\v 7 इसलिए न तो लगानेवाला कुछ है, और न सींचनेवाला, परन्तु परमेश्‍वर जो बढ़ानेवाला है।
\p
\s5
\v 8 लगानेवाला और सींचनेवाला दोनों एक हैं; परन्तु हर एक व्यक्ति अपने ही परिश्रम के अनुसार अपनी ही मजदूरी पाएगा।
\v 9 क्योंकि हम परमेश्‍वर के सहकर्मी हैं; तुम परमेश्‍वर की खेती और परमेश्‍वर की रचना हो।
\s5
\v 10 परमेश्‍वर के उस अनुग्रह के अनुसार, जो मुझे दिया गया, मैंने बुद्धिमान राजमिस्‍त्रि के समान नींव डाली, और दूसरा उस पर रद्दा रखता है। परन्तु हर एक मनुष्य चौकस रहे, कि वह उस पर कैसा रद्दा रखता है।
\v 11 क्योंकि उस नींव को छोड़ जो पड़ी है, और वह यीशु मसीह है, कोई दूसरी नींव नहीं डाल सकता। (यशा. 28:16)
\p
\s5
\v 12 और यदि कोई इस नींव पर सोना या चाँदी या बहुमूल्य पत्थर या काठ या घास या फूस का रद्दा रखे,
\v 13 तो हर एक का काम प्रगट हो जाएगा; क्योंकि वह दिन उसे बताएगा; इसलिए कि आग के साथ प्रगट होगा और वह आग हर एक का काम परखेगी कि कैसा है।
\p
\s5
\v 14 जिसका काम उस पर बना हुआ स्थिर रहेगा, वह मजदूरी पाएगा।
\v 15 और यदि किसी का काम जल जाएगा, तो वह हानि उठाएगा; पर वह आप बच जाएगा परन्तु जलते-जलते।
\p
\s5
\v 16 क्या तुम नहीं जानते, कि तुम परमेश्‍वर का मन्दिर हो, और परमेश्‍वर का आत्मा तुम में वास करता है?
\v 17 यदि कोई परमेश्‍वर के मन्दिर को नाश करेगा तो परमेश्‍वर उसे नाश करेगा; क्योंकि परमेश्‍वर का मन्दिर पवित्र है, और वह तुम हो।
\s सांसारिक ज्ञान से बचो
\p
\s5
\v 18 कोई अपने आप को धोखा न दे। यदि तुम में से कोई इस संसार में अपने आप को ज्ञानी समझे, तो मूर्ख बने कि ज्ञानी हो जाए।
\v 19 क्योंकि इस संसार का ज्ञान परमेश्‍वर के निकट मूर्खता है, जैसा लिखा है,
\q “वह ज्ञानियों को उनकी चतुराई में फँसा देता है,” (अय्यू. 5:13)
\m
\v 20 और फिर, “प्रभु ज्ञानियों के विचारों को जानता है, कि व्यर्थ हैं।” (भज. 94:11)
\p
\s5
\v 21 इसलिए मनुष्यों पर कोई घमण्ड न करे, क्योंकि सब कुछ तुम्हारा है।
\v 22 क्या पौलुस, क्या अपुल्लोस, क्या कैफा, क्या जगत, क्या जीवन, क्या मरण, क्या वर्तमान, क्या भविष्य, सब कुछ तुम्हारा है,
\v 23 और तुम मसीह के हो, और मसीह परमेश्‍वर का है।
\s5
\c 4
\s मसीह के विश्वासयोग्य भण्डारी
\p
\v 1 मनुष्य हमें मसीह के सेवक और परमेश्‍वर के भेदों के भण्डारी समझे।
\v 2 फिर यहाँ भण्डारी में यह बात देखी जाती है, कि विश्वासयोग्य निकले।
\p
\s5
\v 3 परन्तु मेरी दृष्टि में यह बहुत छोटी बात है, कि तुम या मनुष्यों का कोई न्यायी मुझे परखे, वरन् मैं आप ही अपने आप को नहीं परखता।
\v 4 क्योंकि मेरा मन मुझे किसी बात में दोषी नहीं ठहराता, परन्तु इससे मैं निर्दोष नहीं ठहरता, क्योंकि मेरा परखनेवाला प्रभु है। (भज. 19:12)
\p
\s5
\v 5 इसलिए जब तक प्रभु न आए, समय से पहले किसी बात का न्याय न करो: वही तो अंधकार की छिपी बातें* ज्योति में दिखाएगा, और मनों के उद्देश्यों को प्रगट करेगा, तब परमेश्‍वर की ओर से हर एक की प्रशंसा होगी।
\s मसीह के लिये मूर्ख
\p
\s5
\v 6 हे भाइयों, मैंने इन बातों में तुम्हारे लिये अपनी और अपुल्लोस की चर्चा दृष्टान्त की रीति पर की है, इसलिए कि तुम हमारे द्वारा यह सीखो,
\q कि लिखे हुए से आगे न बढ़ना,
\m और एक के पक्ष में और दूसरे के विरोध में गर्व न करना।
\v 7 क्योंकि तुझ में और दूसरे में कौन भेद करता है? और तेरे पास क्या है जो तूने (दूसरे से) नहीं पाया और जब कि तूने (दूसरे से) पाया है, तो ऐसा घमण्ड क्यों करता है, कि मानो नहीं पाया?
\p
\s5
\v 8 तुम तो तृप्त हो चुके; तुम धनी हो चुके, तुम ने हमारे बिना राज्य किया; परन्तु भला होता कि तुम राज्य करते कि हम भी तुम्हारे साथ राज्य करते।
\v 9 मेरी समझ में परमेश्‍वर ने हम प्रेरितों को सब के बाद उन लोगों के समान ठहराया है, जिनकी मृत्यु की आज्ञा हो चुकी हो; क्योंकि हम जगत और स्वर्गदूतों और मनुष्यों के लिये एक तमाशा ठहरे हैं।
\p
\s5
\v 10 हम मसीह के लिये मूर्ख है*; परन्तु तुम मसीह में बुद्धिमान हो; हम निर्बल हैं परन्तु तुम बलवान हो। तुम आदर पाते हो, परन्तु हम निरादर होते हैं।
\v 11 हम इस घड़ी तक भूखे-प्यासे और नंगे हैं, और घूसे खाते हैं और मारे-मारे फिरते हैं;
\p
\s5
\v 12 और अपने ही हाथों के काम करके परिश्रम करते हैं। लोग बुरा कहते हैं, हम आशीष देते हैं; वे सताते हैं, हम सहते हैं।
\v 13 वे बदनाम करते हैं, हम विनती करते हैं हम आज तक जगत के कूड़े और सब वस्तुओं की खुरचन के समान ठहरे हैं। (विला. 3:45)
\s पौलुस का अनुसरण करने की सलाह
\p
\s5
\v 14 मैं तुम्हें लज्जित करने के लिये ये बातें नहीं लिखता, परन्तु अपने प्रिय बालक जानकर तुम्हें चिताता हूँ।
\v 15 क्योंकि यदि मसीह में तुम्हारे सिखानेवाले दस हजार भी होते, तो भी तुम्हारे पिता बहुत से नहीं, इसलिए कि मसीह यीशु में सुसमाचार के द्वारा मैं तुम्हारा पिता हुआ।
\v 16 इसलिए मैं तुम से विनती करता हूँ, कि मेरी जैसी चाल चलो।
\p
\s5
\v 17 इसलिए मैंने तीमुथियुस को जो प्रभु में मेरा प्रिय और विश्वासयोग्य पुत्र है, तुम्हारे पास भेजा है, और वह तुम्हें मसीह में मेरा चरित्र स्मरण कराएगा, जैसे कि मैं हर जगह हर एक कलीसिया में उपदेश करता हूँ।
\v 18 कितने तो ऐसे फूल गए हैं, मानो मैं तुम्हारे पास आने ही का नहीं।
\p
\s5
\v 19 परन्तु प्रभु चाहे तो मैं तुम्हारे पास शीघ्र ही आऊँगा, और उन फूले हुओं की बातों को नहीं, परन्तु उनकी सामर्थ्य को जान लूँगा।
\v 20 क्योंकि परमेश्‍वर का राज्य बातों में नहीं, परन्तु सामर्थ्य में है।
\v 21 तुम क्या चाहते हो? क्या मैं छड़ी लेकर तुम्हारे पास आऊँ या प्रेम और नम्रता की आत्मा के साथ?
\s5
\c 5
\s कलीसिया में अनैतिक सदस्य
\p
\v 1 यहाँ तक सुनने में आता है, कि तुम में व्यभिचार होता है, वरन् ऐसा व्यभिचार जो अन्यजातियों में भी नहीं होता, कि एक पुरुष अपने पिता की पत्‍नी को रखता है। (लैव्य. 18:8, व्य. 22:30)
\v 2 और तुम शोक तो नहीं करते, जिससे ऐसा काम करनेवाला तुम्हारे बीच में से निकाला जाता, परन्तु घमण्ड करते हो।
\p
\s5
\v 3 मैं तो शरीर के भाव से दूर था, परन्तु आत्मा के भाव से तुम्हारे साथ होकर, मानो उपस्थिति की दशा में ऐसे काम करनेवाले के विषय में न्याय कर चुका हूँ।
\v 4 कि जब तुम, और मेरी आत्मा, हमारे प्रभु यीशु की सामर्थ्य के साथ इकट्ठे हों, तो ऐसा मनुष्य, हमारे प्रभु यीशु के नाम से।
\v 5 शरीर के विनाश के लिये शैतान को सौंपा जाए, ताकि उसकी आत्मा प्रभु यीशु के दिन में उद्धार पाए।
\p
\s5
\v 6 तुम्हारा घमण्ड करना अच्छा नहीं; क्या तुम नहीं जानते, कि थोड़ा सा ख़मीर* पूरे गुँधे हुए आटे को ख़मीर कर देता है।
\v 7 पुराना ख़मीर निकालकर, अपने आप को शुद्ध करो कि नया गूँधा हुआ आटा बन जाओ; ताकि तुम अख़मीरी हो, क्योंकि हमारा भी फसह जो मसीह है, बलिदान हुआ है।
\v 8 इसलिए आओ हम उत्सव में आनन्द मनायें, न तो पुराने ख़मीर से और न बुराई और दुष्टता के ख़मीर से, परन्तु सिधाई और सच्चाई की अख़मीरी रोटी से।
\s अनैतिकता के लिये न्याय
\p
\s5
\v 9 मैंने अपनी पत्री में तुम्हें लिखा है*, कि व्यभिचारियों की संगति न करना।
\v 10 यह नहीं, कि तुम बिलकुल इस जगत के व्यभिचारियों, या लोभियों, या अंधेर करनेवालों, या मूर्तिपूजकों की संगति न करो; क्योंकि इस दशा में तो तुम्हें जगत में से निकल जाना ही पड़ता।
\p
\s5
\v 11 मेरा कहना यह है; कि यदि कोई भाई कहलाकर, व्यभिचारी, या लोभी, या मूर्तिपूजक, या गाली देनेवाला, या पियक्कड़, या अंधेर करनेवाला हो, तो उसकी संगति मत करना; वरन् ऐसे मनुष्य के साथ खाना भी न खाना।
\v 12 क्योंकि मुझे बाहरवालों का न्याय करने से क्या काम*? क्या तुम भीतरवालों का न्याय नहीं करते?
\v 13 परन्तु बाहरवालों का न्याय परमेश्‍वर करता है:
\q इसलिए उस कुकर्मी को अपने बीच में से निकाल दो।
\s5
\c 6
\s आपसी विवादों का निबटारा
\p
\v 1 क्या तुम में से किसी को यह साहस है, कि जब दूसरे के साथ झगड़ा* हो, तो फैसले के लिये अधर्मियों के पास जाए; और पवित्र लोगों के पास न जाए?
\v 2 क्या तुम नहीं जानते, कि पवित्र लोग* जगत का न्याय करेंगे? और जब तुम्हें जगत का न्याय करना है, तो क्या तुम छोटे से छोटे झगड़ों का भी निर्णय करने के योग्य नहीं? (दानि. 7:22)
\v 3 क्या तुम नहीं जानते, कि हम स्वर्गदूतों का न्याय करेंगे? तो क्या सांसारिक बातों का निर्णय न करे?
\p
\s5
\v 4 यदि तुम्हें सांसारिक बातों का निर्णय करना हो, तो क्या उन्हीं को बैठाओगे जो कलीसिया में कुछ नहीं समझे जाते हैं?
\v 5 मैं तुम्हें लज्जित करने के लिये यह कहता हूँ। क्या सचमुच तुम में से एक भी बुद्धिमान नहीं मिलता, जो अपने भाइयों का निर्णय कर सके?
\v 6 वरन् भाई-भाई में मुकद्दमा होता है, और वह भी अविश्वासियों के सामने।
\p
\s5
\v 7 सचमुच तुम में बड़ा दोष तो यह है, कि आपस में मुकद्दमा करते हो। वरन् अन्याय क्यों नहीं सहते? अपनी हानि क्यों नहीं सहते?
\v 8 वरन् अन्याय करते और हानि पहुँचाते हो, और वह भी भाइयों को।
\p
\s5
\v 9 क्या तुम नहीं जानते, कि अन्यायी लोग परमेश्‍वर के राज्य के वारिस न होंगे? धोखा न खाओ, न वेश्यागामी, न मूर्तिपूजक, न परस्त्रीगामी, न लुच्चे, न पुरुषगामी।
\v 10 न चोर, न लोभी, न पियक्कड़, न गाली देनेवाले, न अंधेर करनेवाले परमेश्‍वर के राज्य के वारिस होंगे।
\v 11 और तुम में से कितने ऐसे ही थे, परन्तु तुम प्रभु यीशु मसीह के नाम से और हमारे परमेश्‍वर के आत्मा से धोए गए, और पवित्र हुए और धर्मी ठहरे।
\s शरीर और आत्मा में परमेश्‍वर की महिमा
\p
\s5
\v 12 सब वस्तुएँ मेरे लिये उचित तो हैं, परन्तु सब वस्तुएँ लाभ की नहीं, सब वस्तुएँ मेरे लिये उचित हैं, परन्तु मैं किसी बात के अधीन न हूँगा।
\v 13 भोजन पेट के लिये, और पेट भोजन के लिये है, परन्तु परमेश्‍वर इसको और उसको दोनों को नाश करेगा, परन्तु देह व्यभिचार के लिये नहीं, वरन् प्रभु के लिये; और प्रभु देह के लिये है।
\p
\s5
\v 14 और परमेश्‍वर ने अपनी सामर्थ्य से प्रभु को जिलाया, और हमें भी जिलाएगा।
\v 15 क्या तुम नहीं जानते, कि तुम्हारी देह मसीह के अंग हैं? तो क्या मैं मसीह के अंग लेकर उन्हें वेश्या के अंग बनाऊँ? कदापि नहीं।
\p
\s5
\v 16 क्या तुम नहीं जानते, कि जो कोई वेश्या से संगति करता है, वह उसके साथ एक तन हो जाता है क्योंकि लिखा है, “वे दोनों एक तन होंगे।” (मर. 10:8)
\v 17 और जो प्रभु की संगति में रहता है*, वह उसके साथ एक आत्मा हो जाता है।
\p
\s5
\v 18 व्यभिचार से बचे रहो जितने और पाप मनुष्य करता है, वे देह के बाहर हैं, परन्तु व्यभिचार करनेवाला अपनी ही देह के विरुद्ध पाप करता है।
\p
\s5
\v 19 क्या तुम नहीं जानते, कि तुम्हारी देह पवित्र आत्मा का मन्दिर है*; जो तुम में बसा हुआ है और तुम्हें परमेश्‍वर की ओर से मिला है, और तुम अपने नहीं हो?
\v 20 क्योंकि दाम देकर मोल लिये गए हो, इसलिए अपनी देह के द्वारा परमेश्‍वर की महिमा करो।
\s5
\c 7
\s विवाह के सिद्धांत
\p
\v 1 उन बातों के विषय में जो तुम ने लिखीं, यह अच्छा है, कि पुरुष स्त्री को न छूए।
\v 2 परन्तु व्यभिचार के डर से हर एक पुरुष की पत्‍नी, और हर एक स्त्री का पति हो।
\p
\s5
\v 3 पति अपनी पत्‍नी का हक़ पूरा करे; और वैसे ही पत्‍नी भी अपने पति का।
\v 4 पत्‍नी को अपनी देह पर अधिकार नहीं पर उसके पति का अधिकार है; वैसे ही पति को भी अपनी देह पर अधिकार नहीं, परन्तु पत्‍नी को।
\p
\s5
\v 5 तुम एक दूसरे से अलग न रहो; परन्तु केवल कुछ समय तक आपस की सम्मति* से कि प्रार्थना के लिये अवकाश मिले, और फिर एक साथ रहो; ऐसा न हो, कि तुम्हारे असंयम के कारण शैतान तुम्हें परखे।
\p
\v 6 परन्तु मैं जो यह कहता हूँ वह अनुमति है न कि आज्ञा।
\v 7 मैं यह चाहता हूँ, कि जैसा मैं हूँ, वैसा ही सब मनुष्य हों; परन्तु हर एक को परमेश्‍वर की ओर से विशेष वरदान* मिले हैं; किसी को किसी प्रकार का, और किसी को किसी और प्रकार का।
\s अविवाहितों के लिये सलाह
\p
\s5
\v 8 परन्तु मैं अविवाहितों और विधवाओं के विषय में कहता हूँ, कि उनके लिये ऐसा ही रहना अच्छा है, जैसा मैं हूँ।
\v 9 परन्तु यदि वे संयम न कर सके, तो विवाह करें; क्योंकि विवाह करना कामातुर रहने से भला है।
\s विवाहितों के लिये सलाह
\p
\s5
\v 10 जिनका विवाह हो गया है, उनको मैं नहीं, वरन् प्रभु आज्ञा देता है, कि पत्‍नी अपने पति से अलग न हो।
\v 11 (और यदि अलग भी हो जाए, तो बिना दूसरा विवाह किए रहे; या अपने पति से फिर मेल कर ले) और न पति अपनी पत्‍नी को छोड़े।
\p
\s5
\v 12 दूसरों से प्रभु नहीं, परन्तु मैं ही कहता हूँ, यदि किसी भाई की पत्‍नी विश्वास न रखती हो, और उसके साथ रहने से प्रसन्‍न हो, तो वह उसे न छोड़े।
\v 13 और जिस स्त्री का पति विश्वास न रखता हो, और उसके साथ रहने से प्रसन्‍न हो; वह पति को न छोड़े।
\v 14 क्योंकि ऐसा पति जो विश्वास न रखता हो, वह पत्‍नी के कारण पवित्र ठहरता है, और ऐसी पत्‍नी जो विश्वास नहीं रखती, पति के कारण पवित्र ठहरती है; नहीं तो तुम्हारे बाल-बच्चे अशुद्ध होते, परन्तु अब तो पवित्र हैं।
\p
\s5
\v 15 परन्तु जो पुरुष विश्वास नहीं रखता, यदि वह अलग हो, तो अलग होने दो, ऐसी दशा में कोई भाई या बहन बन्धन में नहीं; परन्तु परमेश्‍वर ने तो हमें मेल-मिलाप के लिये बुलाया है।
\v 16 क्योंकि हे स्त्री, तू क्या जानती है, कि तू अपने पति का उद्धार करा लेगी? और हे पुरुष, तू क्या जानता है कि तू अपनी पत्‍नी का उद्धार करा लेगा?
\s परमेश्‍वर की बुलाहट के अनुसार चलो
\p
\s5
\v 17 पर जैसा प्रभु ने हर एक को बाँटा है, और जैसा परमेश्‍वर ने हर एक को बुलाया है*; वैसा ही वह चले: और मैं सब कलीसियाओं में ऐसा ही ठहराता हूँ।
\v 18 जो खतना किया हुआ बुलाया गया हो, वह खतनारहित न बने: जो खतनारहित बुलाया गया हो, वह खतना न कराए।
\v 19 न खतना कुछ है, और न खतनारहित परन्तु परमेश्‍वर की आज्ञाओं को मानना ही सब कुछ है।
\p
\s5
\v 20 हर एक जन जिस दशा में बुलाया गया हो, उसी में रहे।
\v 21 यदि तू दास की दशा में बुलाया गया हो तो चिन्ता न कर; परन्तु यदि तू स्वतंत्र हो सके, तो ऐसा ही काम कर।
\v 22 क्योंकि जो दास की दशा में प्रभु में बुलाया गया है, वह प्रभु का स्वतंत्र किया हुआ है और वैसे ही जो स्वतंत्रता की दशा में बुलाया गया है, वह मसीह का दास है।
\v 23 तुम दाम देकर मोल लिये गए हो, मनुष्यों के दास न बनो।
\v 24 हे भाइयों, जो कोई जिस दशा में बुलाया गया हो, वह उसी में परमेश्‍वर के साथ रहे।
\s विवाह सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तर
\p
\s5
\v 25 कुँवारियों के विषय में प्रभु की कोई आज्ञा मुझे नहीं मिली, परन्तु विश्वासयोग्य होने के लिये जैसी दया प्रभु ने मुझ पर की है, उसी के अनुसार सम्मति देता हूँ।
\v 26 इसलिए मेरी समझ में यह अच्छा है, कि आजकल क्लेश के कारण मनुष्य जैसा है, वैसा ही रहे।
\p
\s5
\v 27 यदि तेरे पत्‍नी है, तो उससे अलग होने का यत्न न कर: और यदि तेरे पत्‍नी नहीं, तो पत्‍नी की खोज न कर:
\v 28 परन्तु यदि तू विवाह भी करे, तो पाप नहीं; और यदि कुँवारी ब्याही जाए तो कोई पाप नहीं; परन्तु ऐसों को शारीरिक दुःख होगा, और मैं बचाना चाहता हूँ।
\p
\s5
\v 29 हे भाइयों, मैं यह कहता हूँ, कि समय कम किया गया है, इसलिए चाहिए कि जिनके पत्‍नी हों, वे ऐसे हों मानो उनके पत्‍नी नहीं।
\v 30 और रोनेवाले ऐसे हों, मानो रोते नहीं; और आनन्द करनेवाले ऐसे हों, मानो आनन्द नहीं करते; और मोल लेनेवाले ऐसे हों, कि मानो उनके पास कुछ है नहीं।
\v 31 और इस संसार के साथ व्यवहार करनेवाले ऐसे हों, कि संसार ही के न हो लें; क्योंकि इस संसार की रीति और व्यवहार बदलते जाते हैं।
\p
\s5
\v 32 मैं यह चाहता हूँ, कि तुम्हें चिन्ता न हो। अविवाहित पुरुष प्रभु की बातों की चिन्ता में रहता है, कि प्रभु को कैसे प्रसन्‍न रखे।
\v 33 परन्तु विवाहित मनुष्य संसार की बातों की चिन्ता में रहता है, कि अपनी पत्‍नी को किस रीति से प्रसन्‍न रखे।
\v 34 विवाहिता और अविवाहिता में भी भेद है: अविवाहिता प्रभु की चिन्ता में रहती है, कि वह देह और आत्मा दोनों में पवित्र हो, परन्तु विवाहिता संसार की चिन्ता में रहती है, कि अपने पति को प्रसन्‍न रखे।
\p
\s5
\v 35 यह बात तुम्हारे ही लाभ के लिये कहता हूँ, न कि तुम्हें फँसाने के लिये, वरन् इसलिए कि जैसा उचित है; ताकि तुम एक चित्त होकर प्रभु की सेवा में लगे रहो।
\p
\s5
\v 36 और यदि कोई यह समझे, कि मैं अपनी उस कुँवारी का हक़ मार रहा हूँ, जिसकी जवानी ढल रही है, और प्रयोजन भी हो, तो जैसा चाहे, वैसा करे, इसमें पाप नहीं, वह उसका विवाह होने दे।
\v 37 परन्तु यदि वह मन में फैसला करता है, और कोई अत्यावश्यकता नहीं है, और वह अपनी अभिलाषाओं को नियंत्रित कर सकता है, तो वह विवाह न करके अच्छा करता है।
\v 38 तो जो अपनी कुँवारी का विवाह कर देता है, वह अच्छा करता है और जो विवाह नहीं कर देता, वह और भी अच्छा करता है।
\p
\s5
\v 39 जब तक किसी स्त्री का पति जीवित रहता है, तब तक वह उससे बंधी हुई है, परन्तु जब उसका पति मर जाए, तो जिससे चाहे विवाह कर सकती है, परन्तु केवल प्रभु में।
\v 40 परन्तु जैसी है यदि वैसी ही रहे, तो मेरे विचार में और भी धन्य है, और मैं समझता हूँ, कि परमेश्‍वर का आत्मा मुझ में भी है।
\s5
\c 8
\s चढ़ावे का भोजन
\p
\v 1 अब मूरतों के सामने बलि की हुई* वस्तुओं के विषय में हम जानते हैं, कि हम सब को ज्ञान है: ज्ञान घमण्ड उत्‍पन्‍न करता है, परन्तु प्रेम से उन्नति होती है।
\v 2 यदि कोई समझे, कि मैं कुछ जानता हूँ, तो जैसा जानना चाहिए वैसा अब तक नहीं जानता।
\v 3 परन्तु यदि कोई परमेश्‍वर से प्रेम रखता है*, तो उसे परमेश्‍वर पहचानता है।
\p
\s5
\v 4 अतः मूरतों के सामने बलि की हुई वस्तुओं के खाने के विषय में हम जानते हैं, कि मूरत जगत में कोई वस्तु नहीं*, और एक को छोड़ और कोई परमेश्‍वर नहीं। (व्य. 4:39)
\v 5 यद्यपि आकाश में और पृथ्वी पर बहुत से ईश्वर कहलाते हैं, (जैसा कि बहुत से ईश्वर और बहुत से प्रभु हैं)।
\q
\v 6 तो भी हमारे निकट तो एक ही परमेश्‍वर है:
\q अर्थात् पिता जिसकी ओर से सब वस्तुएँ हैं, और हम उसी के लिये हैं,
\q और एक ही प्रभु है, अर्थात् यीशु मसीह
\q जिसके द्वारा सब वस्तुएँ हुई, और हम भी उसी के द्वारा हैं। (यूह. 1:3, रोम. 11:36)
\p
\s5
\v 7 परन्तु सब को यह ज्ञान नहीं; परन्तु कितने तो अब तक मूरत को कुछ समझने के कारण मूरतों के सामने बलि की हुई को कुछ वस्तु समझकर खाते हैं, और उनका विवेक निर्बल होकर अशुद्ध होता है।
\p
\s5
\v 8 भोजन हमें परमेश्‍वर के निकट नहीं पहुँचाता, यदि हम न खाएँ, तो हमारी कुछ हानि नहीं, और यदि खाएँ, तो कुछ लाभ नहीं।
\v 9 परन्तु चौकस रहो, ऐसा न हो, कि तुम्हारी यह स्वतंत्रता कहीं निर्बलों के लिये ठोकर का कारण हो जाए।
\v 10 क्योंकि यदि कोई तुझ ज्ञानी को मूरत के मन्दिर में भोजन करते देखे, और वह निर्बल जन हो, तो क्या उसके विवेक में मूरत के सामने बलि की हुई वस्तु के खाने का साहस न हो जाएगा।
\p
\s5
\v 11 इस रीति से तेरे ज्ञान के कारण वह निर्बल भाई जिसके लिये मसीह मरा नाश हो जाएगा।
\v 12 तो भाइयों का अपराध करने से और उनके निर्बल विवेक को चोट देने से तुम मसीह का अपराध करते हो।
\v 13 इस कारण यदि भोजन मेरे भाई को ठोकर खिलाएँ, तो मैं कभी किसी रीति से माँस न खाऊँगा, न हो कि मैं अपने भाई के ठोकर का कारण बनूँ।
\s5
\c 9
\s प्रेरितों का उदाहरण
\p
\v 1 क्या मैं स्वतंत्र नहीं*? क्या मैं प्रेरित नहीं? क्या मैंने यीशु को जो हमारा प्रभु है, नहीं देखा? क्या तुम प्रभु में मेरे बनाए हुए नहीं?
\v 2 यदि मैं औरों के लिये प्रेरित नहीं, फिर भी तुम्हारे लिये तो हूँ; क्योंकि तुम प्रभु में मेरी प्रेरिताई पर छाप हो।
\p
\s5
\v 3 जो मुझे जाँचते हैं, उनके लिये यही मेरा उत्तर है।
\v 4 क्या हमें खाने-पीने का अधिकार नहीं?
\v 5 क्या हमें यह अधिकार नहीं, कि किसी मसीही बहन को विवाह कर के साथ लिए फिरें, जैसा अन्य प्रेरित और प्रभु के भाई और कैफा करते हैं?
\v 6 या केवल मुझे और बरनबास को ही जीवन-निर्वाह के लिए काम करना चाहिए।
\p
\s5
\v 7 कौन कभी अपनी गिरह से खाकर सिपाही का काम करता है? कौन दाख की बारी लगाकर उसका फल नहीं खाता? कौन भेड़ों की रखवाली करके उनका दूध नहीं पीता?
\v 8 क्या मैं ये बातें मनुष्य ही की रीति पर बोलता हूँ?
\p
\s5
\v 9 क्या व्यवस्था भी यही नहीं कहती? क्योंकि मूसा की व्यवस्था में लिखा है “दाँवते समय चलते हुए बैल का मुँह न बाँधना।” क्या परमेश्‍वर बैलों ही की चिन्ता करता है? (व्य. 25:4)
\v 10 या विशेष करके हमारे लिये कहता है। हाँ, हमारे लिये ही लिखा गया, क्योंकि उचित है, कि जोतनेवाला आशा से जोते, और दाँवनेवाला भागी होने की आशा से दाँवनी करे।
\v 11 यदि हमने तुम्हारे लिये आत्मिक वस्तुएँ बोई, तो क्या यह कोई बड़ी बात है, कि तुम्हारी शारीरिक वस्तुओं की फसल काटें।
\p
\s5
\v 12 जब औरों का तुम पर यह अधिकार है, तो क्या हमारा इससे अधिक न होगा? परन्तु हम यह अधिकार काम में नहीं लाए; परन्तु सब कुछ सहते हैं, कि हमारे द्वारा मसीह के सुसमाचार की कुछ रोक न हो।
\v 13 क्या तुम नहीं जानते कि जो मन्दिर में सेवा करते हैं, वे मन्दिर में से खाते हैं; और जो वेदी की सेवा करते हैं; वे वेदी के साथ भागी होते हैं? (लैव्य. 6:16, लैव्य. 6:26, व्य. 18:1-3)
\v 14 इसी रीति से प्रभु ने भी ठहराया, कि जो लोग सुसमाचार सुनाते हैं, उनकी जीविका सुसमाचार से हो।
\p
\s5
\v 15 परन्तु मैं इनमें से कोई भी बात काम में न लाया, और मैंने तो ये बातें इसलिए नहीं लिखीं, कि मेरे लिये ऐसा किया जाए, क्योंकि इससे तो मेरा मरना ही भला है; कि कोई मेरा घमण्ड व्यर्थ ठहराए।
\v 16 यदि मैं सुसमाचार सुनाऊँ, तो मेरा कुछ घमण्ड नहीं; क्योंकि यह तो मेरे लिये अवश्य है; और यदि मैं सुसमाचार न सुनाऊँ, तो मुझ पर हाय!
\p
\s5
\v 17 क्योंकि यदि अपनी इच्छा से यह करता हूँ, तो मजदूरी मुझे मिलती है, और यदि अपनी इच्छा से नहीं करता, तो भी भण्डारीपन मुझे सौंपा गया है।
\v 18 तो फिर मेरी कौन सी मजदूरी है? यह कि सुसमाचार सुनाने में मैं मसीह का सुसमाचार सेंत-मेंत कर दूँ; यहाँ तक कि सुसमाचार में जो मेरा अधिकार है, उसको मैं पूरी रीति से काम में लाऊँ।
\s सभी की सेवा
\p
\s5
\v 19 क्योंकि सबसे स्वतंत्र होने पर भी मैंने अपने आप को सब का दास बना दिया* है; कि अधिक लोगों को खींच लाऊँ।
\v 20 मैं यहूदियों के लिये यहूदी बना कि यहूदियों को खींच लाऊँ, जो लोग व्यवस्था के अधीन हैं उनके लिये मैं व्यवस्था के अधीन न होने पर भी व्यवस्था के अधीन बना, कि उन्हें जो व्यवस्था के अधीन हैं, खींच लाऊँ।
\p
\s5
\v 21 व्यवस्थाहीनों के लिये मैं (जो परमेश्‍वर की व्यवस्था से हीन नहीं, परन्तु मसीह की व्यवस्था के अधीन हूँ) व्यवस्थाहीन सा बना, कि व्यवस्थाहीनों को खींच लाऊँ।
\v 22 मैं निर्बलों के लिये* निर्बल सा बना, कि निर्बलों को खींच लाऊँ, मैं सब मनुष्यों के लिये सब कुछ बना हूँ, कि किसी न किसी रीति से कई एक का उद्धार कराऊँ।
\v 23 और मैं सब कुछ सुसमाचार के लिये करता हूँ, कि औरों के साथ उसका भागी हो जाऊँ।
\s मसीही दौड़
\p
\s5
\v 24 क्या तुम नहीं जानते, कि दौड़ में तो दौड़ते सब ही हैं, परन्तु इनाम एक ही ले जाता है? तुम वैसे ही दौड़ो, कि जीतो।
\v 25 और हर एक पहलवान सब प्रकार का संयम करता है, वे तो एक मुरझानेवाले मुकुट को पाने के लिये यह सब करते हैं, परन्तु हम तो उस मुकुट के लिये करते हैं, जो मुरझाने का नहीं।
\v 26 इसलिए मैं तो इसी रीति से दौड़ता हूँ, परन्तु बेठिकाने नहीं, मैं भी इसी रीति से मुक्कों से लड़ता हूँ, परन्तु उसके समान नहीं जो हवा पीटता हुआ लड़ता है।
\v 27 परन्तु मैं अपनी देह को मारता कूटता, और वश में लाता हूँ; ऐसा न हो कि औरों को प्रचार करके, मैं आप ही किसी रीति से निकम्मा ठहरूँ।
\s5
\c 10
\s इस्राएल के इतिहास से चेतावनी
\p
\v 1 हे भाइयों, मैं नहीं चाहता, कि तुम इस बात से अज्ञात रहो, कि हमारे सब पूर्वज बादल के नीचे थे, और सब के सब समुद्र के बीच से पार हो गए। (निर्ग. 14:29)
\v 2 और सब ने बादल में, और समुद्र में, मूसा का बपतिस्मा लिया।
\v 3 और सब ने एक ही आत्मिक भोजन किया। (निर्ग. 16:35, व्य. 8:3)
\v 4 और सब ने एक ही आत्मिक जल पीया, क्योंकि वे उस आत्मिक चट्टान से पीते थे, जो उनके साथ-साथ चलती थी; और वह चट्टान मसीह था। (निर्ग. 17:6, गिन. 20:11)
\p
\s5
\v 5 परन्तु परमेश्‍वर उनमें से बहुतों से प्रसन्‍न ना था, इसलिए वे जंगल में ढेर हो गए। (इब्रा. 3:17)
\v 6 ये बातें हमारे लिये दृष्टान्त ठहरी, कि जैसे उन्होंने लालच किया, वैसे हम बुरी वस्तुओं का लालच न करें।
\p
\s5
\v 7 और न तुम मूरत पूजनेवाले बनो; जैसे कि उनमें से कितने बन गए थे, जैसा लिखा है, “लोग खाने-पीने बैठे, और खेलने-कूदने उठे।”
\v 8 और न हम व्यभिचार करें; जैसा उनमें से कितनों ने किया और एक दिन में तेईस हजार मर गये। (गिन. 25:1, गिन. 25:9)
\p
\s5
\v 9 और न हम प्रभु को परखें; जैसा उनमें से कितनों ने किया, और साँपों के द्वारा नाश किए गए। (गिन. 21:5-6)
\v 10 और न तुम कुड़कुड़ाओ, जिस रीति से उनमें से कितने कुड़कुड़ाए, और नाश करनेवाले के द्वारा नाश किए गए।
\p
\s5
\v 11 परन्तु ये सब बातें, जो उन पर पड़ी, दृष्टान्त की रीति पर थीं; और वे हमारी चेतावनी के लिये जो जगत के अन्तिम समय में रहते हैं लिखी गईं हैं।
\v 12 इसलिए जो समझता है, “मैं स्थिर हूँ,” वह चौकस रहे; कि कहीं गिर न पड़े।
\v 13 तुम किसी ऐसी परीक्षा में नहीं पड़े, जो मनुष्य के सहने के बाहर है: और परमेश्‍वर विश्वासयोग्य है: वह तुम्हें सामर्थ्य से बाहर परीक्षा में न पड़ने देगा, वरन् परीक्षा के साथ निकास भी करेगा; कि तुम सह सको। (2 पत. 2:9)
\s मूर्ति पूजा वर्जित
\p
\s5
\v 14 इस कारण, हे मेरे प्यारों मूर्ति पूजा से बचे रहो*।
\v 15 मैं बुद्धिमान जानकर, तुम से कहता हूँ: जो मैं कहता हूँ, उसे तुम परखो।
\v 16 वह धन्यवाद का कटोरा*, जिस पर हम धन्यवाद करते हैं, क्या वह मसीह के लहू की सहभागिता नहीं? वह रोटी जिसे हम तोड़ते हैं, क्या मसीह की देह की सहभागिता नहीं?
\v 17 इसलिए, कि एक ही रोटी है तो हम भी जो बहुत हैं, एक देह हैं क्योंकि हम सब उसी एक रोटी में भागी होते हैं।
\p
\s5
\v 18 जो शरीर के भाव से इस्राएली हैं, उनको देखो: क्या बलिदानों के खानेवाले वेदी के सहभागी नहीं?
\v 19 फिर मैं क्या कहता हूँ? क्या यह कि मूर्ति का बलिदान कुछ है, या मूरत कुछ है?
\p
\s5
\v 20 नहीं, बस यह, कि अन्यजाति जो बलिदान करते हैं, वे परमेश्‍वर के लिये नहीं, परन्तु दुष्टात्माओं के लिये बलिदान* करते हैं और मैं नहीं चाहता, कि तुम दुष्टात्माओं के सहभागी हो। (व्य. 32:17)
\v 21 तुम प्रभु के कटोरे, और दुष्टात्माओं के कटोरे दोनों में से नहीं पी सकते! तुम प्रभु की मेज और दुष्टात्माओं की मेज दोनों के सहभागी नहीं हो सकते। (मत्ती 6:24)
\v 22 क्या हम प्रभु को क्रोध दिलाते हैं? क्या हम उससे शक्तिमान हैं? (व्य. 32:21)
\s मसीही स्वतंत्रता
\p
\s5
\v 23 सब वस्तुएँ मेरे लिये उचित तो हैं, परन्तु सब लाभ की नहीं। सब वस्तुएँ मेरे लिये उचित तो हैं, परन्तु सब वस्तुओं से उन्नति नहीं।
\v 24 कोई अपनी ही भलाई को न ढूँढ़े वरन् औरों की।
\p
\s5
\v 25 जो कुछ कस्साइयों के यहाँ बिकता है, वह खाओ और विवेक के कारण कुछ न पूछो।
\v 26 “क्योंकि पृथ्वी और उसकी भरपूरी प्रभु की है।” (भज. 24:1)
\v 27 और यदि अविश्वासियों में से कोई तुम्हें नेवता दे, और तुम जाना चाहो, तो जो कुछ तुम्हारे सामने रखा जाए वही खाओ: और विवेक के कारण कुछ न पूछो।
\p
\s5
\v 28 परन्तु यदि कोई तुम से कहे, “यह तो मूरत को बलि की हुई वस्तु है,” तो उसी बतानेवाले के कारण, और विवेक के कारण न खाओ।
\v 29 मेरा मतलब, तेरा विवेक नहीं, परन्तु उस दूसरे का। भला, मेरी स्वतंत्रता दूसरे के विचार से क्यों परखी जाए?
\v 30 यदि मैं धन्यवाद करके सहभागी होता हूँ, तो जिस पर मैं धन्यवाद करता हूँ, उसके कारण मेरी बदनामी क्यों होती है?
\p
\s5
\v 31 इसलिए तुम चाहे खाओ, चाहे पीओ, चाहे जो कुछ करो, सब कुछ परमेश्‍वर की महिमा के लिये करो।
\v 32 तुम न यहूदियों, न यूनानियों, और न परमेश्‍वर की कलीसिया के लिये ठोकर के कारण* बनो।
\v 33 जैसा मैं भी सब बातों में सब को प्रसन्‍न रखता हूँ, और अपना नहीं, परन्तु बहुतों का लाभ ढूँढ़ता हूँ, कि वे उद्धार पाएँ।
\s5
\c 11
\s सिर ढकने सम्बन्धित निर्देश
\p
\v 1 तुम मेरी जैसी चाल चलो जैसा मैं मसीह के समान चाल चलता हूँ।
\p
\v 2 मैं तुम्हें सराहता हूँ, कि सब बातों में तुम मुझे स्मरण करते हो; और जो व्यवहार मैंने तुम्हें सौंप दिए हैं, उन्हें धारण करते हो।
\v 3 पर मैं चाहता हूँ, कि तुम यह जान लो, कि हर एक पुरुष का सिर मसीह है: और स्त्री का सिर पुरुष है: और मसीह का सिर परमेश्‍वर है।
\v 4 जो पुरुष सिर ढाँके हुए प्रार्थना या भविष्यद्वाणी करता है, वह अपने सिर का अपमान करता है।
\p
\s5
\v 5 परन्तु जो स्त्री बिना सिर ढके प्रार्थना या भविष्यद्वाणी करती है, वह अपने सिर का अपमान करती है, क्योंकि वह मुण्डी होने के बराबर है।
\v 6 यदि स्त्री ओढ़नी न ओढ़े, तो बाल भी कटा ले; यदि स्त्री के लिये बाल कटाना या मुण्डाना लज्जा की बात है, तो ओढ़नी ओढ़े।
\p
\s5
\v 7 हाँ पुरुष को अपना सिर ढाँकना उचित नहीं, क्योंकि वह परमेश्‍वर का स्वरूप और महिमा है; परन्तु स्त्री पुरुष की शोभा है। (1 कुरि. 11:3)
\v 8 क्योंकि पुरुष स्त्री से नहीं हुआ, परन्तु स्त्री पुरुष से हुई है। (उत्प. 2:21-23)
\p
\s5
\v 9 और पुरुष स्त्री के लिये नहीं सिरजा गया*, परन्तु स्त्री पुरुष के लिये सिरजी गई है। (उत्प. 2:18)
\v 10 इसलिए स्वर्गदूतों के कारण स्त्री को उचित है, कि अधिकार अपने सिर पर रखे।
\p
\s5
\v 11 तो भी प्रभु में न तो स्त्री बिना पुरुष और न पुरुष बिना स्त्री के है।
\v 12 क्योंकि जैसे स्त्री पुरुष से है*, वैसे ही पुरुष स्त्री के द्वारा है; परन्तु सब वस्तुएँ परमेश्‍वर से हैं।
\p
\s5
\v 13 तुम स्वयं ही विचार करो, क्या स्त्री को बिना सिर ढके परमेश्‍वर से प्रार्थना करना उचित है?
\v 14 क्या स्वाभाविक रीति से भी तुम नहीं जानते, कि यदि पुरुष लम्बे बाल रखे, तो उसके लिये अपमान है।
\v 15 परन्तु यदि स्त्री लम्बे बाल रखे; तो उसके लिये शोभा है क्योंकि बाल उसको ओढ़नी के लिये दिए गए हैं।
\v 16 परन्तु यदि कोई विवाद करना चाहे, तो यह जाने कि न हमारी और न परमेश्‍वर की कलीसियाओं की ऐसी रीति है।
\s प्रभु भोज के विषय में
\p
\s5
\v 17 परन्तु यह निर्देश देते हुए, मैं तुम्हें नहीं सराहता, इसलिए कि तुम्हारे इकट्ठे होने से भलाई नहीं, परन्तु हानि होती है।
\v 18 क्योंकि पहले तो मैं यह सुनता हूँ, कि जब तुम कलीसिया में इकट्ठे होते हो, तो तुम में फूट होती है और मैं कुछ-कुछ विश्वास भी करता हूँ।
\v 19 क्योंकि विधर्म भी तुम में अवश्य होंगे, इसलिए कि जो लोग तुम में खरे निकले हैं, वे प्रगट हो जाएँ।
\p
\s5
\v 20 जब तुम एक जगह में इकट्ठे होते हो* तो यह प्रभु भोज खाने के लिये नहीं।
\v 21 क्योंकि खाने के समय एक दूसरे से पहले अपना भोज खा लेता है, तब कोई भूखा रहता है, और कोई मतवाला हो जाता है।
\v 22 क्या खाने-पीने के लिये तुम्हारे घर नहीं? या परमेश्‍वर की कलीसिया को तुच्छ जानते हो, और जिनके पास नहीं है उन्हें लज्जित करते हो? मैं तुम से क्या कहूँ? क्या इस बात में तुम्हारी प्रशंसा करूँ? मैं प्रशंसा नहीं करता।
\p
\s5
\v 23 क्योंकि यह बात मुझे प्रभु से पहुँची, और मैंने तुम्हें भी पहुँचा दी; कि प्रभु यीशु ने जिस रात पकड़वाया गया रोटी ली,
\v 24 और धन्यवाद करके उसे तोड़ी, और कहा, “यह मेरी देह है, जो तुम्हारे लिये है: मेरे स्मरण के लिये यही किया करो।”
\p
\s5
\v 25 इसी रीति से उसने बियारी के बाद कटोरा भी लिया, और कहा, “यह कटोरा मेरे लहू में नई वाचा है: जब कभी पीओ, तो मेरे स्मरण के लिये यही किया करो।” (लूका 22:20)
\v 26 क्योंकि जब कभी तुम यह रोटी खाते, और इस कटोरे में से पीते हो, तो प्रभु की मृत्यु को जब तक वह न आए, प्रचार करते हो।
\p
\s5
\v 27 इसलिए जो कोई अनुचित रीति से प्रभु की रोटी खाए, या उसके कटोरे में से पीए, वह प्रभु की देह और लहू का अपराधी ठहरेगा।
\v 28 इसलिए मनुष्य अपने आप को जाँच ले और इसी रीति से इस रोटी में से खाए, और इस कटोरे में से पीए।
\v 29 क्योंकि जो खाते-पीते समय प्रभु की देह को न पहचाने, वह इस खाने और पीने से अपने ऊपर दण्ड लाता है।
\v 30 इसी कारण तुम में बहुत से निर्बल और रोगी हैं, और बहुत से सो भी गए।
\p
\s5
\v 31 यदि हम अपने आप को जाँचते, तो दण्ड न पाते।
\v 32 परन्तु प्रभु हमें दण्ड देकर हमारी ताड़ना करता है इसलिए कि हम संसार के साथ दोषी न ठहरें।
\p
\s5
\v 33 इसलिए, हे मेरे भाइयों, जब तुम खाने के लिये इकट्ठे होते हो, तो एक दूसरे के लिये ठहरा करो।
\v 34 यदि कोई भूखा हो, तो अपने घर में खा ले जिससे तुम्हारा इकट्ठा होना दण्ड का कारण न हो। और शेष बातों को मैं आकर ठीक कर दूँगा।
\s5
\c 12
\s पवित्र आत्मा के वरदान
\p
\v 1 हे भाइयों, मैं नहीं चाहता कि तुम आत्मिक वरदानों* के विषय में अज्ञात रहो।
\v 2 तुम जानते हो, कि जब तुम अन्यजाति थे, तो गूंगी मूरतों के पीछे जैसे चलाए जाते थे वैसे चलते थे। (गला. 4:8)
\v 3 इसलिए मैं तुम्हें चेतावनी देता हूँ कि जो कोई परमेश्‍वर की आत्मा की अगुआई से बोलता है, वह नहीं कहता कि यीशु श्रापित है; और न कोई पवित्र आत्मा के बिना कह सकता है कि यीशु प्रभु है।
\p
\s5
\v 4 वरदान तो कई प्रकार के हैं, परन्तु आत्मा एक ही है।
\v 5 और सेवा भी कई प्रकार की है, परन्तु प्रभु एक ही है।
\v 6 और प्रभावशाली कार्य कई प्रकार के हैं, परन्तु परमेश्‍वर एक ही है, जो सब में हर प्रकार का प्रभाव उत्‍पन्‍न करता है।
\p
\s5
\v 7 किन्तु सब के लाभ पहुँचाने के लिये हर एक को आत्मा का प्रकाश दिया जाता है।
\v 8 क्योंकि एक को आत्मा के द्वारा बुद्धि की बातें दी जाती हैं; और दूसरे को उसी आत्मा के अनुसार ज्ञान की बातें।
\p
\s5
\v 9 और किसी को उसी आत्मा से विश्वास; और किसी को उसी एक आत्मा से चंगा करने का वरदान दिया जाता है।
\v 10 फिर किसी को सामर्थ्य के काम करने की शक्ति; और किसी को भविष्यद्वाणी की; और किसी को आत्माओं की परख, और किसी को अनेक प्रकार की भाषा; और किसी को भाषाओं का अर्थ बताना।
\v 11 परन्तु ये सब प्रभावशाली कार्य वही एक आत्मा करवाता है, और जिसे जो चाहता है वह बाँट देता है।
\s देह एक : अंग अनेक
\p
\s5
\v 12 क्योंकि जिस प्रकार देह तो एक है और उसके अंग बहुत से हैं, और उस एक देह के सब अंग, बहुत होने पर भी सब मिलकर एक ही देह हैं, उसी प्रकार मसीह भी है।
\v 13 क्योंकि हम सब ने क्या यहूदी हो, क्या यूनानी, क्या दास, क्या स्वतंत्र एक ही आत्मा के द्वारा* एक देह होने के लिये बपतिस्मा लिया, और हम सब को एक ही आत्मा पिलाया गया।
\p
\s5
\v 14 इसलिए कि देह में एक ही अंग नहीं, परन्तु बहुत से हैं।
\v 15 यदि पाँव कहे: कि मैं हाथ नहीं, इसलिए देह का नहीं, तो क्या वह इस कारण देह का नहीं?
\v 16 और यदि कान कहे, “मैं आँख नहीं, इसलिए देह का नहीं,” तो क्या वह इस कारण देह का नहीं?
\v 17 यदि सारी देह आँख ही होती तो सुनना कहाँ से होता? यदि सारी देह कान ही होती तो सूँघना कहाँ होता?
\p
\s5
\v 18 परन्तु सचमुच परमेश्‍वर ने अंगों को अपनी इच्छा के अनुसार एक-एक करके देह में रखा है।
\v 19 यदि वे सब एक ही अंग होते, तो देह कहाँ होती?
\v 20 परन्तु अब अंग तो बहुत से हैं, परन्तु देह एक ही है।
\p
\s5
\v 21 आँख हाथ से नहीं कह सकती, “मुझे तेरा प्रयोजन नहीं,” और न सिर पाँवों से कह सकता है, “मुझे तुम्हारा प्रयोजन नहीं।”
\v 22 परन्तु देह के वे अंग जो औरों से निर्बल* देख पड़ते हैं, बहुत ही आवश्यक हैं।
\v 23 और देह के जिन अंगों को हम कम आदरणीय समझते हैं उन्हीं को हम अधिक आदर देते हैं; और हमारे शोभाहीन अंग और भी बहुत शोभायमान हो जाते हैं,
\v 24 फिर भी हमारे शोभायमान अंगों को इसका प्रयोजन नहीं, परन्तु परमेश्‍वर ने देह को ऐसा बना दिया है, कि जिस अंग को घटी थी उसी को और भी बहुत आदर हो।
\p
\s5
\v 25 ताकि देह में फूट न पड़े, परन्तु अंग एक दूसरे की बराबर चिन्ता करें।
\v 26 इसलिए यदि एक अंग दुःख पाता है, तो सब अंग उसके साथ दुःख पाते हैं; और यदि एक अंग की बड़ाई होती है, तो उसके साथ सब अंग आनन्द मनाते हैं।
\v 27 इसी प्रकार तुम सब मिलकर मसीह की देह हो, और अलग-अलग उसके अंग हो।
\p
\s5
\v 28 और परमेश्‍वर ने कलीसिया में अलग-अलग व्यक्ति नियुक्त किए हैं; प्रथम प्रेरित, दूसरे भविष्यद्वक्ता, तीसरे शिक्षक, फिर सामर्थ्य के काम करनेवाले, फिर चंगा करनेवाले, और उपकार करनेवाले, और प्रधान, और नाना प्रकार की भाषा बोलनेवाले।
\v 29 क्या सब प्रेरित हैं? क्या सब भविष्यद्वक्ता हैं? क्या सब उपदेशक हैं? क्या सब सामर्थ्य के काम करनेवाले हैं?
\p
\s5
\v 30 क्या सब को चंगा करने का वरदान मिला है? क्या सब नाना प्रकार की भाषा बोलते हैं?
\v 31 क्या सब अनुवाद करते हैं? तुम बड़े से बड़े वरदानों की धुन में रहो! परन्तु मैं तुम्हें और भी सबसे उत्तम मार्ग बताता हूँ।
\s5
\c 13
\s प्रेम महान है
\p
\v 1 यदि मैं मनुष्यों, और स्वर्गदूतों की बोलियां बोलूँ, और प्रेम न रखूँ, तो मैं ठनठनाता हुआ पीतल, और झंझनाती हुई झाँझ हूँ।
\v 2 और यदि मैं भविष्यद्वाणी कर सकूँ, और सब भेदों और सब प्रकार के ज्ञान को समझूँ, और मुझे यहाँ तक पूरा विश्वास हो, कि मैं पहाड़ों को हटा दूँ, परन्तु प्रेम न रखूँ, तो मैं कुछ भी नहीं*।
\v 3 और यदि मैं अपनी सम्पूर्ण संपत्ति कंगालों को खिला दूँ, या अपनी देह जलाने के लिये दे दूँ, और प्रेम न रखूँ, तो मुझे कुछ भी लाभ नहीं।
\p
\s5
\v 4 प्रेम धीरजवन्त है, और कृपालु है; प्रेम डाह नहीं करता; प्रेम अपनी बड़ाई नहीं करता, और फूलता नहीं।
\v 5 अशोभनीय व्यवहार नहीं करता, वह अपनी भलाई नहीं चाहता, झुँझलाता नहीं, बुरा नहीं मानता।
\v 6 कुकर्म से आनन्दित नहीं होता, परन्तु सत्य से आनन्दित होता है।
\v 7 वह सब बातें सह लेता है, सब बातों पर विश्वास करता है, सब बातों की आशा रखता है*, सब बातों में धीरज धरता है। (1 कुरि. 13:4)
\p
\s5
\v 8 प्रेम कभी टलता नहीं; भविष्यद्वाणियाँ हों, तो समाप्त हो जाएँगी, भाषाएँ मौन हो जाएँगी; ज्ञान हो, तो मिट जाएगा।
\v 9 क्योंकि हमारा ज्ञान अधूरा है, और हमारी भविष्यद्वाणी अधूरी।
\v 10 परन्तु जब सर्वसिद्ध* आएगा, तो अधूरा मिट जाएगा।
\p
\s5
\v 11 जब मैं बालक था, तो मैं बालकों के समान बोलता था, बालकों के समान मन था बालकों सी समझ थी; परन्तु सयाना हो गया, तो बालकों की बातें छोड़ दी।
\v 12 अब हमें दर्पण में धुँधला सा दिखाई देता है; परन्तु उस समय आमने-सामने देखेंगे, इस समय मेरा ज्ञान अधूरा है; परन्तु उस समय ऐसी पूरी रीति से पहचानूँगा, जैसा मैं पहचाना गया हूँ।
\v 13 पर अब विश्वास, आशा, प्रेम ये तीनों स्थायी* है, पर इनमें सबसे बड़ा प्रेम है।
\s5
\c 14
\s अन्य-अन्य भाषाएँ और भविष्यद्वाणी
\p
\v 1 प्रेम का अनुकरण करो*, और आत्मिक वरदानों की भी धुन में रहो विशेष करके यह, कि भविष्यद्वाणी करो।
\v 2 क्योंकि जो अन्य भाषा* में बातें करता है; वह मनुष्यों से नहीं, परन्तु परमेश्‍वर से बातें करता है; इसलिए कि उसकी बातें कोई नहीं समझता; क्योंकि वह भेद की बातें आत्मा में होकर बोलता है।
\v 3 परन्तु जो भविष्यद्वाणी करता है, वह मनुष्यों से उन्नति, और उपदेश, और शान्ति की बातें कहता है।
\v 4 जो अन्य भाषा में बातें करता है, वह अपनी ही उन्नति करता है; परन्तु जो भविष्यद्वाणी करता है, वह कलीसिया की उन्नति करता है।
\p
\s5
\v 5 मैं चाहता हूँ, कि तुम सब अन्य भाषाओं में बातें करो, परन्तु अधिकतर यह चाहता हूँ कि भविष्यद्वाणी करो: क्योंकि यदि अन्य भाषा बोलनेवाला कलीसिया की उन्नति के लिये अनुवाद न करे तो भविष्यद्वाणी करनेवाला उससे बढ़कर है।
\s अन्य भाषा की व्याख्या की जानी चाहिए
\p
\v 6 इसलिए हे भाइयों, यदि मैं तुम्हारे पास आकर अन्य भाषा में बातें करूँ, और प्रकाश, या ज्ञान, या भविष्यद्वाणी, या उपदेश की बातें तुम से न कहूँ, तो मुझसे तुम्हें क्या लाभ होगा?
\s5
\v 7 इसी प्रकार यदि निर्जीव वस्तुएँ भी, जिनसे ध्वनि निकलती है जैसे बाँसुरी, या बीन, यदि उनके स्वरों में भेद न हो तो जो फूँका या बजाया जाता है, वह क्यों पहचाना जाएगा?
\v 8 और यदि तुरही का शब्द साफ न हो तो कौन लड़ाई के लिये तैयारी करेगा?
\v 9 ऐसे ही तुम भी यदि जीभ से साफ बातें न कहो, तो जो कुछ कहा जाता है? वह क्यों समझा जाएगा? तुम तो हवा से बातें करनेवाले ठहरोगे।
\p
\s5
\v 10 जगत में कितने ही प्रकार की भाषाएँ क्यों न हों, परन्तु उनमें से कोई भी बिना अर्थ की न होगी।
\p
\v 11 इसलिए यदि मैं किसी भाषा का अर्थ न समझूँ, तो बोलनेवाले की दृष्टि में परदेशी ठहरूँगा; और बोलनेवाला मेरी दृष्टि में परदेशी ठहरेगा।
\s5
\v 12 इसलिए तुम भी जब आत्मिक वरदानों की धुन में हो, तो ऐसा प्रयत्न करो, कि तुम्हारे वरदानों की उन्नति से कलीसिया की उन्नति हो।
\v 13 इस कारण जो अन्य भाषा बोले, तो वह प्रार्थना करे, कि उसका अनुवाद भी कर सके।
\v 14 इसलिए यदि मैं अन्य भाषा में प्रार्थना करूँ, तो मेरी आत्मा प्रार्थना करती है, परन्तु मेरी बुद्धि काम नहीं देती।
\p
\s5
\v 15 तो क्या करना चाहिए? मैं आत्मा से भी प्रार्थना करूँगा, और बुद्धि से भी प्रार्थना करूँगा; मैं आत्मा से गाऊँगा, और बुद्धि से भी गाऊँगा।
\v 16 नहीं तो यदि तू आत्मा ही से धन्यवाद करेगा, तो फिर अज्ञानी तेरे धन्यवाद पर आमीन क्यों कहेगा? इसलिए कि वह तो नहीं जानता, कि तू क्या कहता है?
\p
\s5
\v 17 तू तो भली भाँति से धन्यवाद करता है, परन्तु दूसरे की उन्नति नहीं होती।
\v 18 मैं अपने परमेश्‍वर का धन्यवाद करता हूँ, कि मैं तुम सबसे अधिक अन्य भाषा में बोलता हूँ।
\v 19 परन्तु कलीसिया में अन्य भाषा में दस हजार बातें कहने से यह मुझे और भी अच्छा जान पड़ता है, कि औरों के सिखाने के लिये बुद्धि से पाँच ही बातें कहूँ।
\s अन्य भाषा अविश्वासियों के लिये चिन्ह
\p
\s5
\v 20 हे भाइयों, तुम समझ में बालक न बनो: फिर भी बुराई में तो बालक रहो, परन्तु समझ में सयाने बनो।
\v 21 व्यवस्था में लिखा है,
\m कि प्रभु कहता है,
\q “मैं अन्य भाषा बोलनेवालों के द्वारा, और पराए मुख के द्वारा
\q इन लोगों से बात करूँगा
\q तो भी वे मेरी न सुनेंगे।” (यशा. 28:11-12)
\p
\s5
\v 22 इसलिए अन्य भाषाएँ विश्वासियों के लिये नहीं, परन्तु अविश्वासियों के लिये चिन्ह हैं, और भविष्यद्वाणी अविश्वासियों के लिये नहीं परन्तु विश्वासियों के लिये चिन्ह हैं।
\v 23 तो यदि कलीसिया एक जगह इकट्ठी हो, और सब के सब अन्य भाषा बोलें, और बाहरवाले या अविश्वासी लोग भीतर आ जाएँ तो क्या वे तुम्हें पागल न कहेंगे?
\p
\s5
\v 24 परन्तु यदि सब भविष्यद्वाणी करने लगें, और कोई अविश्वासी या बाहरवाले मनुष्य भीतर आ जाए, तो सब उसे दोषी ठहरा देंगे और परख लेंगे।
\v 25 और उसके मन के भेद प्रगट हो जाएँगे, और तब वह मुँह के बल गिरकर परमेश्‍वर को दण्डवत् करेगा, और मान लेगा, कि सचमुच परमेश्‍वर तुम्हारे बीच में है।
\s उपासना में अनुशासन
\p
\s5
\v 26 इसलिए हे भाइयों क्या करना चाहिए? जब तुम इकट्ठे होते हो, तो हर एक के हृदय में भजन, या उपदेश, या अन्य भाषा, या प्रकाश, या अन्य भाषा का अर्थ बताना रहता है: सब कुछ आत्मिक उन्नति के लिये होना चाहिए।
\v 27 यदि अन्य भाषा में बातें करनी हों, तो दो-दो, या बहुत हो तो तीन-तीन जन बारी-बारी बोलें, और एक व्यक्ति अनुवाद करे*।
\v 28 परन्तु यदि अनुवाद करनेवाला न हो, तो अन्य भाषा बोलनेवाला कलीसिया में शान्त रहे, और अपने मन से, और परमेश्‍वर से बातें करे।
\p
\s5
\v 29 भविष्यद्वक्ताओं में से दो या तीन बोलें, और शेष लोग उनके वचन को परखें।
\v 30 परन्तु यदि दूसरे पर जो बैठा है, कुछ ईश्वरीय प्रकाश हो, तो पहला चुप हो जाए।
\p
\s5
\v 31 क्योंकि तुम सब एक-एक करके भविष्यद्वाणी कर सकते हो ताकि सब सीखें, और सब शान्ति पाएँ।
\v 32 और भविष्यद्वक्ताओं की आत्मा भविष्यद्वक्ताओं के वश में है।
\v 33 क्योंकि परमेश्‍वर गड़बड़ी का नहीं*, परन्तु शान्ति का कर्ता है;
\p जैसा पवित्र लोगों की सब कलीसियाओं में है।
\s5
\v 34 स्त्रियाँ कलीसिया की सभा में चुप रहें, क्योंकि उन्हें बातें करने की अनुमति नहीं, परन्तु अधीन रहने की आज्ञा है: जैसा व्यवस्था में लिखा भी है।
\v 35 और यदि वे कुछ सीखना चाहें, तो घर में अपने-अपने पति से पूछें, क्योंकि स्त्री का कलीसिया में बातें करना लज्जा की बात है।
\v 36 क्यों परमेश्‍वर का वचन तुम में से निकला? या केवल तुम ही तक पहुँचा है?
\p
\s5
\v 37 यदि कोई मनुष्य अपने आप को भविष्यद्वक्ता या आत्मिक जन समझे, तो यह जान ले, कि जो बातें मैं तुम्हें लिखता हूँ, वे प्रभु की आज्ञायें हैं।
\v 38 परन्तु यदि कोई न माने, तो न माने।
\p
\s5
\v 39 सो हे भाइयों, भविष्यद्वाणी करने की धुन में रहो और अन्य भाषा बोलने से मना न करो।
\v 40 पर सारी बातें सभ्यता और क्रमानुसार की जाएँ।
\s5
\c 15
\s पौलुस का सुसमाचार और मसीह का पुनरुत्थान
\p
\v 1 हे भाइयों, मैं तुम्हें वही सुसमाचार बताता हूँ जो पहले सुना चुका हूँ, जिसे तुम ने अंगीकार भी किया था और जिसमें तुम स्थिर भी हो।
\v 2 उसी के द्वारा तुम्हारा उद्धार भी होता है, यदि उस सुसमाचार को जो मैंने तुम्हें सुनाया था स्मरण रखते हो; नहीं तो तुम्हारा विश्वास करना व्यर्थ हुआ।
\p
\s5
\v 3 इसी कारण मैंने सबसे पहले तुम्हें वही बात पहुँचा दी, जो मुझे पहुँची थी, कि पवित्रशास्त्र के वचन के अनुसार यीशु मसीह हमारे पापों के लिये मर गया*।
\v 4 और गाड़ा गया; और पवित्रशास्त्र के अनुसार तीसरे दिन जी भी उठा। (होशे 6:2)
\p
\s5
\v 5 और कैफा को तब बारहों को दिखाई दिया।
\v 6 फिर पाँच सौ से अधिक भाइयों को एक साथ दिखाई दिया, जिनमें से बहुत सारे अब तक वर्तमान हैं पर कितने सो गए।
\v 7 फिर याकूब को दिखाई दिया तब सब प्रेरितों को दिखाई दिया।
\p
\s5
\v 8 और सब के बाद मुझ को भी दिखाई दिया, जो मानो अधूरे दिनों का जन्मा हूँ।
\v 9 क्योंकि मैं प्रेरितों में सबसे छोटा हूँ, वरन् प्रेरित कहलाने के योग्य भी नहीं, क्योंकि मैंने परमेश्‍वर की कलीसिया को सताया था।
\p
\s5
\v 10 परन्तु मैं जो कुछ भी हूँ, परमेश्‍वर के अनुग्रह से हूँ। और उसका अनुग्रह जो मुझ पर हुआ, वह व्यर्थ नहीं हुआ परन्तु मैंने उन सबसे बढ़कर परिश्रम भी किया तो भी यह मेरी ओर से नहीं हुआ परन्तु परमेश्‍वर के अनुग्रह से जो मुझ पर था।
\v 11 इसलिए चाहे मैं हूँ, चाहे वे हों, हम यही प्रचार करते हैं, और इसी पर तुम ने विश्वास भी किया।
\s मरे हुओ का पुनरुत्थान
\p
\s5
\v 12 सो जब कि मसीह का यह प्रचार किया जाता है, कि वह मरे हुओं में से जी उठा, तो तुम में से कितने क्यों कहते हैं, कि मरे हुओं का पुनरुत्थान है ही नहीं?
\v 13 यदि मरे हुओं का पुनरुत्थान ही नहीं, तो मसीह भी नहीं जी उठा।
\v 14 और यदि मसीह नहीं जी उठा, तो हमारा प्रचार करना भी व्यर्थ है; और तुम्हारा विश्वास भी व्यर्थ है।
\p
\s5
\v 15 वरन् हम परमेश्‍वर के झूठे गवाह ठहरे; क्योंकि हमने परमेश्‍वर के विषय में यह गवाही दी कि उसने मसीह को जिला दिया यद्यपि नहीं जिलाया, यदि मरे हुए नहीं जी उठते।
\v 16 और यदि मुर्दे नहीं जी उठते, तो मसीह भी नहीं जी उठा।
\v 17 और यदि मसीह नहीं जी उठा, तो तुम्हारा विश्वास व्यर्थ है; और तुम अब तक अपने पापों में फँसे हो।
\p
\s5
\v 18 वरन् जो मसीह में सो गए हैं, वे भी नाश हुए।
\v 19 यदि हम केवल इसी जीवन में मसीह से आशा रखते हैं तो हम सब मनुष्यों से अधिक अभागे हैं।
\p
\s5
\v 20 परन्तु सचमुच मसीह मुर्दों में से जी उठा है, और जो सो गए हैं, उनमें पहला फल हुआ।
\v 21 क्योंकि जब मनुष्य के द्वारा मृत्यु आई*; तो मनुष्य ही के द्वारा मरे हुओं का पुनरुत्थान भी आया।
\p
\s5
\v 22 और जैसे आदम में सब मरते हैं, वैसा ही मसीह में सब जिलाए जाएँगे।
\v 23 परन्तु हर एक अपनी-अपनी बारी से; पहला फल मसीह; फिर मसीह के आने पर उसके लोग।
\p
\s5
\v 24 इसके बाद अन्त होगा; उस समय वह सारी प्रधानता और सारा अधिकार और सामर्थ्य का अन्त करके राज्य को परमेश्‍वर पिता के हाथ में सौंप देगा। (दानि. 2:44)
\v 25 क्योंकि जब तक कि वह अपने बैरियों को अपने पाँवों तले न ले आए, तब तक उसका राज्य करना अवश्य है। (भज. 110:1)
\v 26 सबसे अन्तिम बैरी जो नाश किया जाएगा वह मृत्यु है*।
\p
\s5
\v 27 क्योंकि “परमेश्‍वर ने सब कुछ उसके पाँवों तले कर दिया है,” परन्तु जब वह कहता है कि सब कुछ उसके अधीन कर दिया गया है तो स्पष्ट है, कि जिस ने सब कुछ मसीह के अधीन कर दिया, वह आप अलग रहा। (भज. 8:6)
\v 28 और जब सब कुछ उसके अधीन हो जाएगा, तो पुत्र आप भी उसके अधीन हो जाएगा जिस ने सब कुछ उसके अधीन कर दिया; ताकि सब में परमेश्‍वर ही सब कुछ हो।
\p
\s5
\v 29 नहीं तो जो लोग मरे हुओं के लिये बपतिस्मा लेते हैं, वे क्या करेंगे? यदि मुर्दे जी उठते ही नहीं तो फिर क्यों उनके लिये बपतिस्मा लेते हैं?
\v 30 और हम भी क्यों हर घड़ी जोखिम में पड़े रहते हैं?
\p
\s5
\v 31 हे भाइयों, मुझे उस घमण्ड की शपथ जो हमारे मसीह यीशु में मैं तुम्हारे विषय में करता हूँ, कि मैं प्रतिदिन मरता हूँ।
\v 32 यदि मैं मनुष्य की रीति पर इफिसुस में वन-पशुओं से लड़ा, तो मुझे क्या लाभ हुआ? यदि मुर्दे जिलाए नहीं जाएँगे, “तो आओ, खाएँ-पीएँ, क्योंकि कल तो मर ही जाएँगे।” (यशा. 22:13)
\p
\s5
\v 33 धोखा न खाना, “बुरी संगति अच्छे चरित्र को बिगाड़ देती है।”
\p
\v 34 धार्मिकता के लिये जाग उठो और पाप न करो; क्योंकि कितने ऐसे हैं जो परमेश्‍वर को नहीं जानते, मैं तुम्हें लज्जित करने के लिये यह कहता हूँ।
\s हमें कैसी देह मिलेगी?
\p
\s5
\v 35 अब कोई यह कहेगा, “मुर्दे किस रीति से जी उठते हैं, और किस देह के साथ आते हैं?”
\v 36 हे निर्बुद्धि, जो कुछ तू बोता है, जब तक वह न मरे जिलाया नहीं जाता।
\p
\s5
\v 37 और जो तू बोता है, यह वह देह नहीं जो उत्‍पन्‍न होनेवाली है, परन्तु निरा दाना है, चाहे गेहूँ का, चाहे किसी और अनाज का।
\v 38 परन्तु परमेश्‍वर अपनी इच्छा के अनुसार उसको देह देता है; और हर एक बीज को उसकी विशेष देह। (उत्प. 1:11)
\v 39 सब शरीर एक समान नहीं, परन्तु मनुष्यों का शरीर और है, पशुओं का शरीर और है; पक्षियों का शरीर और है; मछलियों का शरीर और है।
\p
\s5
\v 40 स्वर्गीय देह है, और पार्थिव देह भी है: परन्तु स्वर्गीय देहों का तेज और हैं, और पार्थिव का और।
\v 41 सूर्य का तेज और है, चाँद का तेज और है, और तारागणों का तेज और है, क्योंकि एक तारे से दूसरे तारे के तेज में अन्तर है।
\p
\s5
\v 42 मुर्दों का जी उठना भी ऐसा ही है। शरीर नाशवान दशा में बोया जाता है, और अविनाशी रूप में जी उठता है।
\v 43 वह अनादर के साथ बोया जाता है, और तेज के साथ जी उठता है; निर्बलता के साथ बोया जाता है; और सामर्थ्य के साथ जी उठता है।
\v 44 स्वाभाविक देह बोई जाती है, और आत्मिक देह जी उठती है: जब कि स्वाभाविक देह है, तो आत्मिक देह भी है।
\p
\s5
\v 45 ऐसा ही लिखा भी है, “प्रथम मनुष्य, अर्थात् आदम, जीवित प्राणी बना” और अन्तिम आदम, जीवनदायक आत्मा बना।
\v 46 परन्तु पहले आत्मिक न था, पर स्वाभाविक था, इसके बाद आत्मिक हुआ।
\p
\s5
\v 47 प्रथम मनुष्य धरती से अर्थात् मिट्टी का था; दूसरा मनुष्य स्वर्गीय है। (यूह. 3:31)
\v 48 जैसा वह मिट्टी का था वैसे ही वे भी हैं जो मिट्टी के हैं; और जैसा वह स्वर्गीय है, वैसे ही वे भी स्वर्गीय हैं।
\v 49 और जैसे हमने उसका रूप जो मिट्टी का था धारण किया वैसे ही उस स्वर्गीय का रूप भी धारण करेंगे। (1 यूह. 3:2)
\p
\s5
\v 50 हे भाइयों, मैं यह कहता हूँ कि माँस और लहू परमेश्‍वर के राज्य के अधिकारी नहीं हो सकते, और न नाशवान अविनाशी का अधिकारी हो सकता है।
\v 51 देखो, मैं तुम से भेद की बात कहता हूँ: कि हम सब तो नहीं सोएँगे, परन्तु सब बदल जाएँगे।
\p
\s5
\v 52 और यह क्षण भर में, पलक मारते ही अन्तिम तुरही फूँकते ही होगा क्योंकि तुरही फूँकी जाएगी और मुर्दे अविनाशी दशा में उठाए जाएँगे, और हम बदल जाएँगे।
\v 53 क्योंकि अवश्य है, कि वह नाशवान देह अविनाश को पहन ले, और यह मरनहार देह अमरता को पहन ले।
\p
\s5
\v 54 और जब यह नाशवान अविनाश को पहन लेगा, और यह मरनहार अमरता को पहन लेगा, तब वह वचन जो लिखा है, पूरा हो जाएगा,
\q “जय ने मृत्यु को निगल लिया। (यशा. 25:8)
\q
\v 55 हे मृत्यु तेरी जय कहाँ रहीं?
\q हे मृत्यु तेरा डंक कहाँ रहा?” (होशे 13:14)
\p
\s5
\v 56 मृत्यु का डंक पाप है; और पाप का बल व्यवस्था है।
\v 57 परन्तु परमेश्‍वर का धन्यवाद हो, जो हमारे प्रभु यीशु मसीह के द्वारा हमें जयवन्त करता है*।
\p
\s5
\v 58 इसलिए हे मेरे प्रिय भाइयों, दृढ़ और अटल रहो, और प्रभु के काम में सर्वदा बढ़ते जाओ, क्योंकि यह जानते हो, कि तुम्हारा परिश्रम प्रभु में व्यर्थ नहीं है। (गला. 6:9)
\s5
\c 16
\s यरूशलेम की कलीसिया के लिये दान
\p
\v 1 अब उस चन्दे के विषय में जो पवित्र लोगों के लिये किया जाता है, जैसा निर्देश मैंने गलातिया की कलीसियाओं को दी, वैसा ही तुम भी करो।
\v 2 सप्ताह के पहले दिन तुम में से हर एक अपनी आमदनी के अनुसार कुछ अपने पास रख छोड़ा करे, कि मेरे आने पर चन्दा न करना पड़े।
\p
\s5
\v 3 और जब मैं आऊँगा, तो जिन्हें तुम चाहोगे उन्हें मैं चिट्ठियाँ देकर भेज दूँगा, कि तुम्हारा दान यरूशलेम पहुँचा दें।
\v 4 और यदि मेरा भी जाना उचित हुआ, तो वे मेरे साथ जाएँगे।
\s यात्रा का कार्यक्रम
\p
\s5
\v 5 और मैं मकिदुनिया होकर तुम्हारे पास आऊँगा, क्योंकि मुझे मकिदुनिया होकर जाना ही है।
\v 6 परन्तु सम्भव है कि तुम्हारे यहाँ ही ठहर जाऊँ और शरद ऋतु तुम्हारे यहाँ काटूँ, तब जिस ओर मेरा जाना हो, उस ओर तुम मुझे पहुँचा दो।
\p
\s5
\v 7 क्योंकि मैं अब मार्ग में तुम से भेंट करना नहीं चाहता; परन्तु मुझे आशा है, कि यदि प्रभु चाहे तो कुछ समय तक तुम्हारे साथ रहूँगा।
\v 8 परन्तु मैं पिन्तेकुस्त तक इफिसुस में रहूँगा।
\v 9 क्योंकि मेरे लिये एक बड़ा और उपयोगी द्वार खुला है, और विरोधी बहुत से हैं।
\p
\s5
\v 10 यदि तीमुथियुस आ जाए, तो देखना, कि वह तुम्हारे यहाँ निडर रहे; क्योंकि वह मेरे समान प्रभु का काम करता है।
\v 11 इसलिए कोई उसे तुच्छ न जाने, परन्तु उसे कुशल से इस ओर पहुँचा देना, कि मेरे पास आ जाए; क्योंकि मैं उसकी प्रतीक्षा करता रहा हूँ, कि वह भाइयों के साथ आए।
\v 12 और भाई अपुल्लोस से मैंने बहुत विनती की है कि तुम्हारे पास भाइयों के साथ जाए; परन्तु उसने इस समय जाने की कुछ भी इच्छा न की, परन्तु जब अवसर पाएगा, तब आ जाएगा।
\s अन्तिम आदेश
\p
\s5
\v 13 जागते रहो, विश्वास में स्थिर रहो, पुरुषार्थ करो, बलवन्त हो। (इफि. 6:10)
\v 14 जो कुछ करते हो प्रेम से करो।
\p
\s5
\v 15 हे भाइयों, तुम स्तिफनास के घराने को जानते हो, कि वे अखाया के पहले फल हैं, और पवित्र लोगों की सेवा के लिये तैयार रहते हैं।
\v 16 इसलिए मैं तुम से विनती करता हूँ कि ऐसों के अधीन रहो, वरन् हर एक के जो इस काम में परिश्रमी और सहकर्मी हैं।
\p
\s5
\v 17 और मैं स्तिफनास और फूरतूनातुस और अखइकुस के आने से आनन्दित हूँ, क्योंकि उन्होंने तुम्हारी घटी को पूरी की है।
\v 18 और उन्होंने मेरी और तुम्हारी आत्मा को चैन दिया है* इसलिए ऐसों को मानो।
\s निष्कर्ष
\p
\s5
\v 19 आसिया की कलीसियाओं की ओर से तुम को नमस्कार; अक्विला और प्रिस्का का और उनके घर की कलीसिया का भी तुम को प्रभु में बहुत-बहुत नमस्कार।
\v 20 सब भाइयों का तुम को नमस्कार: पवित्र चुम्बन से आपस में नमस्कार करो।
\p
\s5
\v 21 मुझ पौलुस का अपने हाथ का लिखा हुआ नमस्कार: यदि कोई प्रभु से प्रेम न रखे तो वह श्रापित हो।
\v 22 हमारा प्रभु आनेवाला है।
\v 23 प्रभु यीशु मसीह का अनुग्रह तुम पर होता रहे।
\v 24 मेरा प्रेम मसीह यीशु में* तुम सब के साथ रहे। आमीन।