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\v 4 \v 5 \v 6 \v 7 4 प्रेम सहनशीलता हए और दयालु हए| प्रेम हिर्स नाए करत हए, नाए शेखी करत हए| 5 प्रेम हठी नाए होतहए, नाए ढीट होतहए, प्रेम अपनो बातमे जिद्दी नाए करत हए, बबाल नाए मनत हए, खराबीको हिसाब नाए धरत हए| 6 प्रेम खराबीमे खुशी नाए होत हए, पर ठीक बातमे रमातहए| 7 प्रेम सब बात सहत हए, सब बातको पतियात हए, सब बातमे आशा धरत हए, सब बातमे स्तिर रहत हए|

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\v 8 \v 9 \v 10 8 प्रेमको कभु अन्त नाए होत हए|अगमवणी बितकेखतम हुइ जए हए, भाषा बन्द हुइजए हए, ज्ञान टल जए हए| 9 हमर ज्ञान अधुरो हए, हमर अगमवणी अधुरी हए| 10 तव जब सिद्धता चाहिँ अए हए, अपूर्णता खतम हुइ जए हए|

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\v 11 \v 12 \v 13 11 जब बालक रहौ तव बालक जैसो बोलत रहौ, बालकको विचार करत रहौ, बालक कता पुछत रहौ, पर जब मए जवान भव तव बालकको चाल छोड दओ| 12 अब हम दरपनमे जैसो गुधलो देखत हए, पर बो बेरा चाहिँ छर्लङ देखंगे| अभे मए थोरी बुझत हौ, बो बेरा चाहिँ पुरा बुझंगो, जैसी मए फिर पुरा रुपसे चिनो हौ| 13 अब विश्वास, आशा, प्रेम, जे तिन रहमंगे, पर जे मैसे सबसे अच्छो प्रेम हए|

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\c 14 \v 1 \v 2 \v 3 \v 4 1 प्रेम तुमरो लक्ष्य बनाओ, और आत्मिक वरदानके ताहि उत्कट अभिलाषा राखओ, विशेष करके अगमवाणी बोलनके ताहि| 2 काहेकी अन्य भाषामे बोलनबारो आदमीसे नाए पर परमेश्वरसंग बोलत हए| बो का कहत हए कोइ बुझत नैयाँ पवित्र आत्मा रहस्यकी बात बोलत हए| 3 पर अगमवाणी बोलनबारो हरेक आदमीसंग बोलत हए बिनके आत्मिक वृध्दि, उत्साह और सान्तवनाके ताहि बो बोलत हए|4 अन्य भाषा बोलनबारो अपन आत्मिक वृध्दि करत हए| पर अगमवाणी बोलनबारो मण्डलीको आत्मिक वृध्दि करत हए|