thr_1co_text_reg/07/32.txt

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\v 32 \v 33 \v 34 32 तुम सब निष्फिक्री होबौ कहिके मए चहत हौ| विहा नभव आदमी प्रभुके कैसे खुशी बनैहए कहिके प्रभुके बातके बारेमे फिक्री करत हए, 33 पर विहा भव आदमी बैयरके कैसे खुशी करओ कहिके संसारको बातमे फिक्री करत हौ| 34 अइसो आदमीके मन दुईघेन लागो होतहए| विहा नभव बैयरकी शरीर और आत्मा दुनेमे कैसे पवित्र रहओ कहिके प्रभुके बातके बारेमे फिक्री करत हए| पर विहा भव चाँहि कैसे अपन लोगाके खुशी रखामओं कहिके संसारके बातके फिक्री करत हए|