“सेवा करना” अर्थात् मनुष्यों की सहायता के काम करना। इसका अर्थ "अराधना" भी होता है।
* एक व्यक्ति जब अतिथियों की सेवा करता है तो इसका अर्थ है “सुश्रुषा करना” या “भोजन परोसना” या “भोजन व्यवस्था करना”
* जब यीशु ने अपने शिष्यों से कहा था कि जनसमूह में मछली बांट दें, तो इसका अनुवाद हो सकता है, “वितरण करना” या “देना”
* शब्द "सेवा" सेवारत के कार्य को संदर्भित करता है। इसका संदर्भ परमेश्वर की आराधना हेतु विश्वासियों के “एकत्र होने” से भी है।
* सेवा” का अनुवाद “सेवा सुश्रुषा” या “काम करना” या “देखरेख” या “आज्ञापालन” भी हो सकता है।
* "परमेश्वर की सेवा करना” का अनुवाद “परमेश्वर की उपासना एवं आज्ञापालन” या “परमेश्वर की आज्ञा का कार्य करना” भी हो सकता है।."
* मेज की सेवा” अर्थात् मेज पर बैठने वालों को भोजन परोसना। आम तौर पर, "भोजन वितरित करना"
* मनुष्यों को परमेश्वर के बारे में शिक्षा देने वालों को परमेश्वर और जिन्हें शिक्षा दी जाती है दोनों की सेवा करनेवाले कहा जाता है।
* प्रेरित पौलुस ने कुरिन्थ नगर के विश्वासियों को लिखा था कि वे पुराने नियम की "सेवा" कैसे करते थे। इसका संदर्भ मूसा की व्यवस्था का पालन सूचित करता है।
* अब वे नई वाचा "सेवा" करते हैं। अर्थात् क्रूस पर यीशु के बलिदान के कारण यीशु के विश्वासी पवित्र-आत्मा द्वारा परमेश्वर को प्रसन्न करने तथा पवित्र जीवन जीने योग्य हो गए हैं।
* पौलुस उनके द्वारा पुरानी वाचा या नई वाचा की "सेवा" के संदर्भ में चर्चा कर रहा था। इसका अनुवाद हो सकता है, “सेवा करना” या “आज्ञा मानना” या “भक्ति करना”
(यह भी देखें: [वाचा](../kt/covenant.md), [व्यवस्था](../kt/lawofmoses.md), [सेवक](../other/servant.md))