diff --git a/tn_2CO.tsv b/tn_2CO.tsv index 88771b7..9f824ed 100644 --- a/tn_2CO.tsv +++ b/tn_2CO.tsv @@ -1,6 +1,6 @@ Reference ID Tags SupportReference Quote Occurrence Note front:intro ur4j 0 "# 2 कुरिन्थियों: प्रस्तावना\n\n## भाग 1: सामान्य प्रस्तावना\n\n### कुरिन्थि की कलीसिया को लिखे दूसरे पत्र की रूपरेखा\n\n1. प्रारम्भ और आशीष वचन (1:1–2)\n2. कष्टों में ढाढ़स बंधाने के लिए परमेश्वर की स्तुति (1:3–11)\n3. यात्रा की योजनाओं में परिवर्तन (1:12–2:13)\n * परिवर्तन और उसके कारण (1:15–2:4)\n * दुःख का कारण उत्पन्न करने वाला मनुष्य (2:5–11)\n * त्राओस और मकिदुनिया की यात्रा (2:12–13)\n4. पौलुस का सेवा कार्य (2:14–7:4)\n * मसीह की सुगंध (2:14–17)\n * सेवा का लिए गुण (3:1–6)\n * मूसा की सेवा और पौलुस की सेवा (3:7–4:6)\n * कष्ट वहन और सेवा (4:7–18)\n * पुनरुत्थान में विश्वास (5:1–10)\n * सुसमाचार (5:11–6:2)\n * मसीही सेवा के प्रमाण (6:3–10)\n सह-विश्वासियों के साथ संगती, अविश्वासियों के साथ नहीं(6:11–7:4)\n5. कुरिन्थ की कलीसिया के साथ तीतुस की भेंट से प्राप्त समाचार से पौलुस आनादित है (7:5–16)\n6. सुसमाचार के निमित्त दान देना (8:1–9:15)\n * मकिदुनिया की कलीसिया का उदाहरण(8:1–6)\n * वदान्य दान देने के लिए कुरिन्थ की कलिसिया से पौलुस का आग्रह (8:7–9:5)\n * आशीष और धन्यवाद (9:6–15)\n7. पौलुस की प्रेरितीय सेवा के बचाव में उसके प्रतिवाद (10:1–13:10)\n *गर्व करने का वास्तविक मानदंड (10:1–18)\n -*पौलुस अपने प्रचार और आचरण का बचाव करता है (11:1–15)\n * अपने कष्टों के निमित पौलुस की गर्वोक्ति (11:16–33)\n * पौलुस का स्वर्ग में उठाया जाना और उसकी देह में काँटा चुभाया जाना (12:1–10)\n * पौलुस अपनी गर्वोक्ति का समापन करता है (12:11–13)\n * अपने आर्थिक आचरण के बारे में पौलुस के वचन (12:14–18)\n * अपनी तीसरी यात्रा के परिप्रेक्ष्य में पौलुस कुरिन्थ की कलिसिया को चेतावनी देता है(12:19–13:10)\n8. समापन (13:11–13)\n\n### कुरिन्थ की कलीसिया को लिखे दूसरे पत्र का लेखक कौन था?\n\nलेखक अपने परिचय में कहता है की वह प्रेरित पौलुस है .पौलुस तर्शीश का मूल निवासी था. परन्तु वह यरूशलेम में प्रवासी भी था । आरंभिक जीवन में वह शाऊल के नाम से जामा जाता था. मसीह यीशु का अनुयायी होने से पूर्व वह एक फरीसी था और मसीही विश्वासियों का उत्पीड़क था. मसीह यीशु का अनुयायी होने के बाद उसने सम्पूर्ण रोमी साम्राज्य में अनेक यात्राएं कीं और मनुष्यों को यीशु के बारे में सुनाया. कुरिन्थ के निवासियों से तो उसने रोम की अपनी तीसरी यात्रा में पहली बार भेंट की थी (देखें [प्रे.का. 18:1–18](../act/18/01.md)). उनसे भेंट करने के बाद पौलुस दो वर्ष से अधिक इफिसुस में रहा था (देखें [प्रे.का.19:110](../act/19/01.md)).\n\Nइफिसुस में रहते हुए उसने कुरिन्थ के विश्वासियों को एक पत्र लिखा था जिसे हम कुरिन्थ की कलीसिया को लिखा पहला पत्र कहते हैं. उस पत्र को लिखने के बाद और इफिसुस में दो वर्ष और रहते हुए उसने कुरिन्थ का मात्र लघुकालीन भ्रमण किया था और वह दुखदायी समय रहा था (देखें [2:1](../02/01.md)). इस भेंट के बाद उसने कुरिन्थ की कलीसिया को दो पत्र और लिखे थे. हमारे पास पौलुस द्वारा लिखा वह प्रथम पत्र नहीं है, वह एक कठोर पत्र था जिससे कुरिन्थ की कलीसिया को संभवतः ठेस पहुंची थी (देखें [2:4](../02/04.md)). पौलुस द्वारा लिखा हुआ दूसरा पत्र वर्तमान दूसरा पत्र है. यह पत्र उसने उसके मित्र तीतुस के कुरिन्थ भ्रमण पश्चात पुनः आगमन पर मकिदुनिया से लिखा था क्योंकि तीतुस ने उसे कुरिन्थ के विश्वासियों के व्यवहार का शुभ सन्देश सुनाया था.\n\n### 2 कुरिन्थियों की पुस्तक की विषयवस्तु क्या है?\n\nकुरिन्थ की कलीसिया को लिखे इस दुसरे पत्र में पौलुस ने कुरिन्थ की कलीसिया को सच्चे सुसमाचार में अनवरत सहायता देने के लिए और उसमें मसीह के सच्चे प्रेरित होने के उनके विश्वास की सराहना की थी. यह पत्र उसने उस समय लिखा था जब तीतुस कुरिन्थ के विश्वासियों से भेंट करके और पौलुस की झिड़की के उस कठोर पत्र को उन्हें देने के बाद पुनः पौलुस के पास आ गया था. इस दुसरे पत्र में पौलुस कुरिन्थ के विश्वासियों से कहता है कि उनकी सकारात्मक प्रतिक्रया का समाचार सुन कर वह प्रसन्न है. तथापि निर्देशन और सुधार के लिए अभी भी उसको बहुत कुछ लिखना है, और वह उन्हें सच्चे सुसमाचार की शिक्षा देने वाला प्रेरित होने के लिए अपना प्रतिवाद प्रस्तुत करता है. सर्व-सामान्य अभिप्राय में देखा जाए तो पौलुस ने कुरिन्थ की कलीसिया को यह दूसरा पत्र, उनके साथ अपने संबंधों को दृढ़ता प्रदान करने और सब विश्वासियों में पारस्पारिक संबंधों को दृढ बनाने के लिए तथा मसीह में अधिकाधिक विश्वास करने एवं उसकी आज्ञाओं का पालन करने में दृढ़ रहने के लिए लिखा था.\n\n### इस पुस्तक के शीर्षक का अनुवाद कैसे किया जाए?\n\nअनुवादक इस पुस्तक के शीर्षक को पारंपरिक नाम, “कुरिन्थियों के नाम पौलुस प्रेरित की दूसरी पत्री” का चुनाव कर सकते हैं या वे एक दूसरा शीर्षक चुन लें जैसे, “कुरिन्थ की कलीसिया को लिखा पौलुस का दूसरा पत्र” या “कुरिन्थ के विश्वासियों को लिखा दूसरा पत्र” (देखें: [[rc://*/ta/man/translate/translate-names]])\n\n## भाग 2: महत्वपूर्ण धार्मिक एवं सांस्कृतिक अवधारणाएं \n\n### कुरिन्थ नगर कैसा स्थान था?\n\nप्राचीन यूनान में स्थित कुरिन्थ नगर एक महानगर था क्योंकि वह भूमध्य सागर के निकट था वरन एक महत्वपूर्ण स्थान में बसा हुआ था. अनेक व्यापारी वहाँ सामान खरीदने और बेचने आते थे और यही कारण था कि वहाँ के निवासियों में विविधता थी. धनवान मनुष्यों की भी वहाँ कमी नहीं थी. कुरिन्थ के निवासी अनेक देवताओं की पूजा करते थे जिसमें खाना-पीना और यौनाचार की बहुतायत थी. ऐसी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में मसीही विश्वासी उन देवताओं में से कुछ की भी उपासना में भी उपस्थित नहीं होते थे तो उनको विचित्र प्राणी समझा जाता था और जन सामान्य उनके साथ सम्बन्ध रखना नहीं चाहते थे. \n\n### इस पत्र में पौलुस कौन-कौन से विषयों पर चर्चा करता है?\n\nकुरिन्थ की कलीसिया को लिखे इस दूसरे पत्र में पौलुस चार मुख्य विषयों पर चर्चा करता है. पहला, पौलुस तत्काल ही उनके पास पुनः आने के अपने निर्णय को स्थगित कर देता है जबकि उसकी आरंभिक योजना ऐसी ही थी. वह कुरिन्थ के विश्वासियों को सूचित करना चाहता है कि उसने अपनी योजना में यह मात्र एक परिवर्तन है और ऐसा नहीं है कि वह वचन देकर पीछे हट रहा है. दूसरा, जब पौलुस उनके मध्य था तब पौलुस का उनके साथ बहुत वाद-विवाद वरन झगड़ा तक हो गया था. पौलुस की मनोकामना थी कि उनके पारस्परिक संबंधों को पुनः मधुर बनाया जाए जिससे कि वे एक दूसरे पर विश्वास करें और एक दूसरे की सुध रखें. तीसरा, पौलुस कुरिन्थ के विश्वासियों को प्रोत्साहित करना चाहता था कि वे यरूशलेम के विश्वासियों की आर्थिक सहायता के लिए उदारता से दान दें. पौलुस अपनी अनेक कलीसियाओं से इस प्रयोजन निमित्त दान एकत्र कर रहा था और वह चाहता था कि कुरिन्थ की कलीसिया भी उदारता से दान दे.चौथा, अनेक जन कहते थे कि पौलुस एक सच्चा प्रेरित नहीं हैऔर उसके द्वारा प्रचार किया गया सन्देश वस्तविक नहीं है. ये मनुष्य या तो आगंतुक थे या कुरिन्थ के ही निवासी थे. पौलुस ने इन मनुष्यों के समक्ष अपना और आपने सुसमाचार का बचाव किया. ये चारों विषय एक मूल समस्या से सम्बंधित हैं: कुरिन्थ की कलीसिया उसके अधिकार और उसकी देखरेख पर संदेह करने लगी थी . उसने कुरिन्थ की कलीसिया को लिखे दूसरे पत्र में इस मूल समस्या पर चर्चा की थी और इन चार विषयों पर ध्यान केन्द्रित किया था. \n\n### वे झूठे शिक्षक कौन थे जिनके बारे में पौलुस कहता है?\n\Nपौलुस का विरोध करने वाले झूठे शिक्षकों के बारे में हमें जो जानकारी प्राप्त है वह केवल इसी पत्र से है. अतः हम निश्चित नहीं कह सकते कि वे कौन थे. पौलुस उनको महत्त्व के दो विशेष नामों से संदर्भित करता है: “बड़े से बड़े प्रेरितों” और “झूठे प्रेरित.” कुछ विद्वानों के विचार में ये “बड़े से बड़े प्रेरितों” में उन बारहों में से कुछ प्रेरित थे जिन्हे यीशु ने नियुक्त किया था जबकि झूठे प्रेरित वे थे जो वास्तव में प्रेरित तो नहीं थे परन्तु प्रेरित होने का दावा करते थे. दूसरी और, अनेक विद्वानों के विचार में ये दोनों नाम एक ही समूह के मनुष्यों के सन्दर्भ में हैं: झूठे शिक्षक प्रेरित होने का दावा करते थे परन्तु वे वास्तव में प्रेरित नहीं थे. पौलुस नामों को स्पष्ट न करने में सावधान है. संभवतः यह दूसरा विचार सही है. पौलुस के कहने का निहितार्थ है कि ये झूठे शिक्षक यहूदी जन थे जो मसीह कि सेवा करने का दावा करते थे (देखें [11:22–23](../11/22.md)). वे अधिकार औए सामर्थ्य रखने का दावा करते थे. हम नहीं जानते कि वे वास्तव में यीशु के बारे में क्या शिक्षा दे रहे थे। तथापि, हमें यह तो ज्ञात है कि उनके दावे के अनुसार उनका सुसमाचार पौलुस के सुसमाचार के अधिक उत्तम था परन्तु पौलुस कहता है कि वे जो शिक्षा दे रहे थे , वह अनुचित थी।\n\n## Part 3: अनुवाद के कठिन विषय \n\n### पौलुस ने कुरिन्थ के विश्वासियों को कौन-कौन से पत्र लिखे थ? \n\nPaul पौलुस ने कुरिन्थ के विश्वासियों को कम से कम चार पत्र लिखे थे। पहाला पत्र उसने लिखा था कि वे अनैतिक यौनाचार से बचें (देखें [1 कुरिन्थियों 5:9](../1co/10509.md)). यह पत्र हमारे पास नहीं है। दूसरा पत्र उसने लिखा जिसमें उसने कुरिन्थ के विश्वासियों द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर और कुरिन्थ की कलीसिया में झगड़ों पर आख्यान किया गया था। यह पात्र वर्तमान में, कुरिन्थ की कलीसिया को लिखा पहला पत्र कहलाता है। तीसरा पत्र उसने कठोर शब्दों में और खरी-खोटी सुनाते हुए लिखा था (see [2:3–4](../02/03.md) और [7:8–12](../07/08.md)). यह पत्र भी हमारे पास नहीं है। चुअथा पत्र उसने तब लिखा था जब उसका मित्र तीतुस कुरिन्थ कि कलीसिया से भेंट करके लौटा था और उसने शुभ समाचार सुनाया थे कि कुरिन्थ कि कलीसिया ने उसके कठोर पत्र पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दिखाई थी। यह पत्र आज कुरिन्थ की कलीसिया को लिखा दूसरा पत्र कहलाता है।\n\n### पौलुस कौन से आगमनों के बारे में कुरिन्थ कि कलीसिया से चर्चा करता है? \n\Nकुरिन्थ कि कलीसिया को लिखे दूसरे पत्र में इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं करता है। उसने कुरिन्थ नगर कि प्रथम यात्रा में उनको सुसमाचार सुनाया था जिसके बारे में [प्रे.का. 18:1–18](../act/18/01.md) में पढ़ा जा सकता है। कुरिन्थ कि कलीसिया को लिखे इस दूसरे पत्र में बहुत कम शब्दों में पौलुस कुरिन्थ की कलीसिया के साथ अपनी दूसरी भेंट कि चर्चा करता है जो अत्यधिक “दुखदायी” या “कष्टप्रद” थी। (देखें [2:1](../02/01.md)). इस “दुखदायी” भेंट के कुछ समय बाद तीतुस कुरिन्थ नगर गया उअर कलीसिया से भेंट की और पौलुस के पास मकिदुनिया में लौट आया (देखें [2:12–13](../02/12.md) और [7:6–7](../07/06.md)). संभवतः वह पौलुस के उस “कठोर पत्र” को लेकर वहाँ गया था। संभवतः यह तीतुस की वही यात्रा थी जिसका उल्लेख पौलुस [8:6](../08/06.md) और [12:18](../12/18.md), में करता है। यद्यपि इनमें से एक या दोनों पद तीतुस द्वारा इस पत्र, 2 कुरिन्थियों को ले जाने का उल्लेख कर सकते हैं \n\nपौलुस 2 कुएंथियों में उन दो यात्राओं का उल्लेख भी करता है जो अब तक नहीं की गई थीं, जब वह इस दूसरे पत्र को लिख रहा था। पहली, पौलुस ने तीतुस और दो गुमनाम विश्वासियों से आग्रह किया था कि वे कुरिन्थ की कलीसिया को लिखे उस पत्र, 2 कुरिन्थियों के लेकर वहाँ जाएं ([8:16–24](../08/16.md) और [9:3](../09/03.md)). दूसरी, पौलुस तीसरी बार कुरिन्थ की कलीसिया से भेंट करने की योजना बना रहा है। ([12:14](../12/14.md) और [13:1](../13/01.md)). आवश्यक होगा कि आप इन याराओं के अनुवाद में क्रिया काल और रूपों का यथोचित प्रयोग करें।विवरणों और अनुवाद के विकल्पों के लिए विशिष्ट पदों पर की गई टिप्पणियों का अवलोकन करें। \n\n### पौलुस व्यंगोक्ति और कटाक्ष का प्रयोग कैसे करता है? \n\nइस पत्र में अनेक स्थानों पर पौलुस व्यंग और कटाक्ष का प्रयोग करता है, जहां वह ऎसी बाते कहता है जिन्हें वह वास्तव में सच नहीं मानता है। वह अन्य मनुष्यों के दृष्टिकोण से कहता है और उनके विचार में जो सच है उसको उजागर करता है। ऐसा करने में उसका उद्देश्य है कि अन्य मनुष्यों के बातों पर प्रतिक्रिया प्रकट करे और सिद्ध करे कि वे मूर्खता है वरन निर्बुद्धि की हैं। ULT में प्रायः उन शब्दों को जिन्हें पौलुस सच नहीं मानता है अतः पौलुस उन्हें व्यंग के रूप में या कटाक्ष के रूप में प्रयोग करता है, उद्धरण चिन्हों में रखा गया है। UST में पौलुस के व्यंग और कटाक्ष का संकेत किसी और मनुष्य के शब्दों में व्यक्त किया गया है। विचार करें कि आप अपनी भाषा में व्यंग और कटाक्ष को कैसे प्रस्तुत करेंगे और पौलुस जहां-जहां व्यंग करता है वहाँ-वहाँ टिप्पणियाँ देखें। (देखें: [[rc://*/ta/man/translate/figs-irony]])\n\n### घमंड करने से पौलुस का तात्प र्य क्या है? \n\Nपौलुस की संस्कृति में हर एक गर्वोक्ति को बुरा नहीं कहा जाता था। उनकी गर्वोक्तियाँ बुरी भी होती थीं तो अच्छी भी होती थीं। इस पत्र में पौलुस व्याख्या करता है कि अच्छी गर्वोक्ति क्या है और वह कहता है कि उसका घमंड करना अच्छा है। उसकी बातों में निहित अर्थ है कि उसके विरोधियों का घमंड करनी अनिष्ट है। पौलुस के विचार में घमंड करने का सबसे उत्तम उपाय है, परमेश्वर के और उसके कामों के बारे में अच्छी-अच्छी बाते कहना। उसके विरोधी, अर्थात झूठे शिक्षक अपने ज्ञान पर घमंड करते थे उसके विचार में कुरिन्थ के विश्ववासियों से बातें करते समय ऐसा घमंड करना उसके लिए सर्वोचित नहीं है। वह ऐसा केवल इसलिए करता है कि उसके विरोधियों के प्रति प्रतिक्रिया प्रकट करे और कुरिन्थ के विश्वासियों पर स्पष्ट करे कि वह मसीह का एक सच्चा प्रेरित है। वह ऐसे घमंड को मूर्खता कहता है। विचार करें कि आप अच्छे और बुरे घमंड और मूर्खता कि गर्वोक्ति को कैसे व्यक्त करंगे। (देखें: [[rc://*/tw/dict/bible/kt/boast]])\n\n### इन अभिव्यक्तियों, “”मसीह में” और “प्रभु में” के उपयोग द्वारा पौलुस का अर्थ क्या है? \n\nपौलुस इस पत्र में बार-बार स्थानिक रूपक, “मसीह में” (मसीह के लिए दूसरे नाम के साथ जैसे, प्रभु या यीशु) का प्रयोग करता है। इस रूपक द्वारा बल दिया गया है कि विश्वासी मसीह के साथ ऐसे घनिष्ट सम्बन्ध में है जैसे कि वे उसके भीतर अवस्थित हैं। पौलुस का मानना है कि यह एक ऎसी सच्चाई है जो सब विश्वासियों के लिए है। कभ-कभी वह इस उक्ति, “मसीह में” का प्रयोग मात्र इस प्रयोजन के निमित करता है कि जो वह कह रहा है वह यीशु में विश्वास रखने वालों के लिए के लिए एक मूल तथ्य है। कहीं-कहीं ऐसा भी है कि वह मसीह के साथ एकता का प्रयोग कुछ कथनों या प्रबोधनों के कारक होने या आधार होने पर बलाघात हेतु करता है। “मसीह में” और समानार्थक कथनों के प्रकरण आधारित अभिप्राय को समझने के लिए विशिष्ट पदों पर की गई टिप्पणियाँ देखें। (देखें: [[rc://*/ta/man/translate/figs-metaphor]])\n\n### “भाइयों” शब्द का अनुवाद कैसे किया जाए? \n\nइस पत्र में अनेक बार पौलुस विश्वासियों को “भाइयों” कह कर सीधा संबोधित करता है या संदर्भित करता है। बहुवचन, “भाइयों” साथी विश्वासियों के लिए सामान्य रूप में प्रयोग किया गया है। जब “भाई” शब्द का प्रयोग एक वचन में किया गया है तो वह किसी निश्चित विश्वासी के लिए काम में लिया गया है और निश्चित रूप में किसी पुरुष के लिए। पौलुस इस शब्द का प्रयोग करता है क्योंकि वह विश्वासियों को एक ही परिवार के पुत्र-पुत्री स्वरुप घनिष्ट एकता में मानता है। विचार करें कि साथी विश्वासियों के लिए कौन सा शब्द या वाक्यांश सर्वोतम अभिप्राय प्रकट करेगा वरन इस विचार को भी दर्शाएगा कि विश्वासी एक परिवार स्वरुप घनिष्ट एकता में हैं। (See: [[rc://*/tw/dict/bible/kt/brother]])\n\n### “तुम” और “हम” का अनुवाद कैसे किया जाए? \n\nइस सम्पूर्ण पत्र में “तुम”, “तुम्हारा” “तुम्हारे” शब्द बहुवचन में हैं और कुरिन्थ के विश्वासियों के सन्दर्भ में प्रयुक्त हैं जब तक कि टिपण्णी में व्यक्त न किया गया हो कि “तुम” का रूप एक वचन में है और यह भी कि इस पत्र में आपको मानना होगा कि “हम”, “हारा” और “हमारे” शब्द पौलुस और उसके साथी प्रेरितों के सन्दर्भ में हैं परन्तु कुरिन्थ के विश्वासियों को समाहित नहीं करते हैं, जब तक कि टिपण्णी से प्रकट न हो कि “हम” शब्द में कुरिन्थ के विश्वासी भी समाहित हैं। कुछ विद्वानों के विचार में पौलुस कभी-कभी प्रथम पुरुष एकवचन का प्रयोग केवल अपने लिए करता है। अन्य विद्वानों के विचार में, पौलुस प्रथम पुरुष एकवचन का प्र्योग अपने लिए और साथी सेवकों के लिए करता है। अब पौलुस के अपने अर्थ को निश्चित करने के लिए हमारे पास कोई भी प्रमाण नहीं है। हमारा सुझाव तो यह है कि आप पौलुस द्वारा प्रथम पुरुष एकवचन और प्रथम पुरुष बहुवचन के इस प्रकार के प्रयोग को ज्यों का त्यों ही रखें। (देखें: [[rc://*/ta/man/translate/figs-yousingular]] और [[rc://*/ta/man/translate/figs-exclusive]])\n\n### 2 कुरिन्थियों की पुस्तक में प्रमुख बाधाएं क्या हैं? \n\nनिम्न लिखित पदों में प्राचीन हस्तलिपियों में एक से शब्द नहीं हैं। ULT में उन शब्दों का प्रयोग किया गया है जो अधिकाँश हस्तलिपियों में पाए जाते हैं। जब आप इन पदों का अनुवाद करते हैं तब आवश्यक है कि आप ULT कि तुलना उस किसी भी संस्करण से करें जिससे आपके पाठक परिचित हैं जिससे कि आपको समझने में सहायता मिले कि आपके पाठकों की अपेक्षा क्या है। वैकल्पिक शब्दों का प्रयोग तब ही करें जब तक कि उसके लिए कोई मुख्य कारण न हो, अन्यथा ULT के अनुसार ही करें। अधिक जानकारी हेतु इन पदों पर पाद टिप्पणी एवं टिप्पणियाँ देखें। (देखें: [[rc://*/ta/man/translate/translate-textvariants]])\n\n* “ऎसी पवित्रता” ([1:12](../01/12.md)). कुछ प्राचीन हस्तलिपियों में लिखा है, “सत्यनिष्ठा में” \n* “एक और दान” ([1:15](../01/15.md)). कुछ प्राचीन हस्तलिपियों में लिखा है, “दूसरा आनंद” ”\n* “सब बातें नई हो गई हैं” ([5:17](../05/17.md)). कुछ हस्तलिपियों में लिखा है, “सब कुछ नया हो गया है” \n* “मैं देखता हूँ”” ([7:8](../07/08.md)). कुछ प्राचीन हस्तलिपियों में लिखा है, “क्योंकि मैं देखता हूँ” अन्य हस्त लिपियों में लिखा है, “देखते हुए” \n* “और उस प्रेम में जो हम से रखते हो” ([8:7](../08/07.md)). कुछ प्राचीन हस्तलिपियों में है, “और हमारे लिए तुम्हारे प्रेम में” \n* “इस भरोसे के कारण” ([9:4](../09/04.md)). कुछ प्राचीन हस्तलिपियों में है, “घमंड करने कि इस दशा के कारण” मुझे घूंसे मारे कि मैं फूल न जाऊं” \n* ([12:7](../12/07.md)). कुछ प्राचीन हस्तलिपियों में है,जिससे कि वह मुझे घूंसे मारे” \n* “जितना बढ़कर मैं तुम से प्रेम रखता हूँ” ([12:15](../12/15.md)). कुछ प्राचीन हस्तलिपियों में है, “यदि मैं तुम से प्रेम रखता हूँ”\n* “[12] एक दूसरे को पवित्र चुम्बन से नमस्कार करो। सब पवित्र लोग तुम्हें नमस्कार कहते हैं। प्रभु यीशु मसीह का अनुग्रह और परमेश्वर का प्रेम और पवित्र आत्मा की सहभागिता तुम सब के साथ होती रहे” ([13:12–13](../13/12.md)). कुछ अनुवादों में इस वाक्यों को 2 पदों की अपेक्षा तीन पदों में विभाजित किया गया है: “[12] आपस में पवित्र चुम्बन से अभिवादन करो” [13] सब पवित्र जन तुम्हारा अभिवादन करते हैं” [14] हमारे प्रभु यीशु मसीह का अनुग्रह और परमेश्वर का प्रेम और पवित्र आत्मा कि सहभागिता तुम सब के साथ (हो)”" +*पौलुस अपने प्रचार और आचरण का बचाव करता है (11:1–15)\n * अपने कष्टों के निमित पौलुस की गर्वोक्ति (11:16–33)\n * पौलुस का स्वर्ग में उठाया जाना और उसकी देह में काँटा चुभाया जाना (12:1–10)\n * पौलुस अपनी गर्वोक्ति का समापन करता है (12:11–13)\n * अपने आर्थिक आचरण के बारे में पौलुस के वचन (12:14–18)\n * अपनी तीसरी यात्रा के परिप्रेक्ष्य में पौलुस कुरिन्थ की कलिसिया को चेतावनी देता है(12:19–13:10)\n8. समापन (13:11–13)\n\n### कुरिन्थ की कलीसिया को लिखे दूसरे पत्र का लेखक कौन था?\n\nलेखक अपने परिचय में कहता है की वह प्रेरित पौलुस है .पौलुस तर्शीश का मूल निवासी था. परन्तु वह यरूशलेम में प्रवासी भी था । आरंभिक जीवन में वह शाऊल के नाम से जामा जाता था. मसीह यीशु का अनुयायी होने से पूर्व वह एक फरीसी था और मसीही विश्वासियों का उत्पीड़क था. मसीह यीशु का अनुयायी होने के बाद उसने सम्पूर्ण रोमी साम्राज्य में अनेक यात्राएं कीं और मनुष्यों को यीशु के बारे में सुनाया. कुरिन्थ के निवासियों से तो उसने रोम की अपनी तीसरी यात्रा में पहली बार भेंट की थी (देखें [प्रे.का. 18:1–18](../act/18/01.md)). उनसे भेंट करने के बाद पौलुस दो वर्ष से अधिक इफिसुस में रहा था (देखें [प्रे.का.19:110](../act/19/01.md)).\n\Nइफिसुस में रहते हुए उसने कुरिन्थ के विश्वासियों को एक पत्र लिखा था जिसे हम कुरिन्थ की कलीसिया को लिखा पहला पत्र कहते हैं. उस पत्र को लिखने के बाद और इफिसुस में दो वर्ष और रहते हुए उसने कुरिन्थ का मात्र लघुकालीन भ्रमण किया था और वह दुखदायी समय रहा था (देखें [2:1](../02/01.md)). इस भेंट के बाद उसने कुरिन्थ की कलीसिया को दो पत्र और लिखे थे. हमारे पास पौलुस द्वारा लिखा वह प्रथम पत्र नहीं है, वह एक कठोर पत्र था जिससे कुरिन्थ की कलीसिया को संभवतः ठेस पहुंची थी (देखें [2:4](../02/04.md)). पौलुस द्वारा लिखा हुआ दूसरा पत्र वर्तमान दूसरा पत्र है. यह पत्र उसने उसके मित्र तीतुस के कुरिन्थ भ्रमण पश्चात पुनः आगमन पर मकिदुनिया से लिखा था क्योंकि तीतुस ने उसे कुरिन्थ के विश्वासियों के व्यवहार का शुभ सन्देश सुनाया था.\n\n### 2 कुरिन्थियों की पुस्तक की विषयवस्तु क्या है?\n\nकुरिन्थ की कलीसिया को लिखे इस दुसरे पत्र में पौलुस ने कुरिन्थ की कलीसिया को सच्चे सुसमाचार में अनवरत सहायता देने के लिए और उसमें मसीह के सच्चे प्रेरित होने के उनके विश्वास की सराहना की थी. यह पत्र उसने उस समय लिखा था जब तीतुस कुरिन्थ के विश्वासियों से भेंट करके और पौलुस की झिड़की के उस कठोर पत्र को उन्हें देने के बाद पुनः पौलुस के पास आ गया था. इस दुसरे पत्र में पौलुस कुरिन्थ के विश्वासियों से कहता है कि उनकी सकारात्मक प्रतिक्रया का समाचार सुन कर वह प्रसन्न है. तथापि निर्देशन और सुधार के लिए अभी भी उसको बहुत कुछ लिखना है, और वह उन्हें सच्चे सुसमाचार की शिक्षा देने वाला प्रेरित होने के लिए अपना प्रतिवाद प्रस्तुत करता है. सर्व-सामान्य अभिप्राय में देखा जाए तो पौलुस ने कुरिन्थ की कलीसिया को यह दूसरा पत्र, उनके साथ अपने संबंधों को दृढ़ता प्रदान करने और सब विश्वासियों में पारस्पारिक संबंधों को दृढ बनाने के लिए तथा मसीह में अधिकाधिक विश्वास करने एवं उसकी आज्ञाओं का पालन करने में दृढ़ रहने के लिए लिखा था.\n\n### इस पुस्तक के शीर्षक का अनुवाद कैसे किया जाए?\n\nअनुवादक इस पुस्तक के शीर्षक को पारंपरिक नाम, “कुरिन्थियों के नाम पौलुस प्रेरित की दूसरी पत्री” का चुनाव कर सकते हैं या वे एक दूसरा शीर्षक चुन लें जैसे, “कुरिन्थ की कलीसिया को लिखा पौलुस का दूसरा पत्र” या “कुरिन्थ के विश्वासियों को लिखा दूसरा पत्र” (देखें: [[rc://*/ta/man/translate/translate-names]])\n\n## भाग 2: महत्वपूर्ण धार्मिक एवं सांस्कृतिक अवधारणाएं \n\n### कुरिन्थ नगर कैसा स्थान था?\n\nप्राचीन यूनान में स्थित कुरिन्थ नगर एक महानगर था क्योंकि वह भूमध्य सागर के निकट था वरन एक महत्वपूर्ण स्थान में बसा हुआ था. अनेक व्यापारी वहाँ सामान खरीदने और बेचने आते थे और यही कारण था कि वहाँ के निवासियों में विविधता थी. धनवान मनुष्यों की भी वहाँ कमी नहीं थी. कुरिन्थ के निवासी अनेक देवताओं की पूजा करते थे जिसमें खाना-पीना और यौनाचार की बहुतायत थी. ऐसी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में मसीही विश्वासी उन देवताओं में से कुछ की भी उपासना में भी उपस्थित नहीं होते थे तो उनको विचित्र प्राणी समझा जाता था और जन सामान्य उनके साथ सम्बन्ध रखना नहीं चाहते थे. \n\n### इस पत्र में पौलुस कौन-कौन से विषयों पर चर्चा करता है?\n\nकुरिन्थ की कलीसिया को लिखे इस दूसरे पत्र में पौलुस चार मुख्य विषयों पर चर्चा करता है. पहला, पौलुस तत्काल ही उनके पास पुनः आने के अपने निर्णय को स्थगित कर देता है जबकि उसकी आरंभिक योजना ऐसी ही थी. वह कुरिन्थ के विश्वासियों को सूचित करना चाहता है कि उसने अपनी योजना में यह मात्र एक परिवर्तन है और ऐसा नहीं है कि वह वचन देकर पीछे हट रहा है. दूसरा, जब पौलुस उनके मध्य था तब पौलुस का उनके साथ बहुत वाद-विवाद वरन झगड़ा तक हो गया था. पौलुस की मनोकामना थी कि उनके पारस्परिक संबंधों को पुनः मधुर बनाया जाए जिससे कि वे एक दूसरे पर विश्वास करें और एक दूसरे की सुध रखें. तीसरा, पौलुस कुरिन्थ के विश्वासियों को प्रोत्साहित करना चाहता था कि वे यरूशलेम के विश्वासियों की आर्थिक सहायता के लिए उदारता से दान दें. पौलुस अपनी अनेक कलीसियाओं से इस प्रयोजन निमित्त दान एकत्र कर रहा था और वह चाहता था कि कुरिन्थ की कलीसिया भी उदारता से दान दे.चौथा, अनेक जन कहते थे कि पौलुस एक सच्चा प्रेरित नहीं हैऔर उसके द्वारा प्रचार किया गया सन्देश वस्तविक नहीं है. ये मनुष्य या तो आगंतुक थे या कुरिन्थ के ही निवासी थे. पौलुस ने इन मनुष्यों के समक्ष अपना और आपने सुसमाचार का बचाव किया. ये चारों विषय एक मूल समस्या से सम्बंधित हैं: कुरिन्थ की कलीसिया उसके अधिकार और उसकी देखरेख पर संदेह करने लगी थी . उसने कुरिन्थ की कलीसिया को लिखे दूसरे पत्र में इस मूल समस्या पर चर्चा की थी और इन चार विषयों पर ध्यान केन्द्रित किया था. \n\n### वे झूठे शिक्षक कौन थे जिनके बारे में पौलुस कहता है?\n\Nपौलुस का विरोध करने वाले झूठे शिक्षकों के बारे में हमें जो जानकारी प्राप्त है वह केवल इसी पत्र से है. अतः हम निश्चित नहीं कह सकते कि वे कौन थे. पौलुस उनको महत्त्व के दो विशेष नामों से संदर्भित करता है: “बड़े से बड़े प्रेरितों” और “झूठे प्रेरित.” कुछ विद्वानों के विचार में ये “बड़े से बड़े प्रेरितों” में उन बारहों में से कुछ प्रेरित थे जिन्हे यीशु ने नियुक्त किया था जबकि झूठे प्रेरित वे थे जो वास्तव में प्रेरित तो नहीं थे परन्तु प्रेरित होने का दावा करते थे. दूसरी और, अनेक विद्वानों के विचार में ये दोनों नाम एक ही समूह के मनुष्यों के सन्दर्भ में हैं: झूठे शिक्षक प्रेरित होने का दावा करते थे परन्तु वे वास्तव में प्रेरित नहीं थे. पौलुस नामों को स्पष्ट न करने में सावधान है. संभवतः यह दूसरा विचार सही है. पौलुस के कहने का निहितार्थ है कि ये झूठे शिक्षक यहूदी जन थे जो मसीह कि सेवा करने का दावा करते थे (देखें [11:22–23](../11/22.md)). वे अधिकार औए सामर्थ्य रखने का दावा करते थे. हम नहीं जानते कि वे वास्तव में यीशु के बारे में क्या शिक्षा दे रहे थे। तथापि, हमें यह तो ज्ञात है कि उनके दावे के अनुसार उनका सुसमाचार पौलुस के सुसमाचार के अधिक उत्तम था परन्तु पौलुस कहता है कि वे जो शिक्षा दे रहे थे , वह अनुचित थी।\n\n## भाग 3: अनुवाद के कठिन विषय \n\n### पौलुस ने कुरिन्थ के विश्वासियों को कौन-कौन से पत्र लिखे थ? \n\nPaul पौलुस ने कुरिन्थ के विश्वासियों को कम से कम चार पत्र लिखे थे। पहाला पत्र उसने लिखा था कि वे अनैतिक यौनाचार से बचें (देखें [1 कुरिन्थियों 5:9](../1co/10509.md)). यह पत्र हमारे पास नहीं है। दूसरा पत्र उसने लिखा जिसमें उसने कुरिन्थ के विश्वासियों द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर और कुरिन्थ की कलीसिया में झगड़ों पर आख्यान किया गया था। यह पात्र वर्तमान में, कुरिन्थ की कलीसिया को लिखा पहला पत्र कहलाता है। तीसरा पत्र उसने कठोर शब्दों में और खरी-खोटी सुनाते हुए लिखा था (see [2:3–4](../02/03.md) और [7:8–12](../07/08.md)). यह पत्र भी हमारे पास नहीं है। चुअथा पत्र उसने तब लिखा था जब उसका मित्र तीतुस कुरिन्थ कि कलीसिया से भेंट करके लौटा था और उसने शुभ समाचार सुनाया थे कि कुरिन्थ कि कलीसिया ने उसके कठोर पत्र पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दिखाई थी। यह पत्र आज कुरिन्थ की कलीसिया को लिखा दूसरा पत्र कहलाता है।\n\n### पौलुस कौन से आगमनों के बारे में कुरिन्थ कि कलीसिया से चर्चा करता है? \n\Nकुरिन्थ कि कलीसिया को लिखे दूसरे पत्र में इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं करता है। उसने कुरिन्थ नगर कि प्रथम यात्रा में उनको सुसमाचार सुनाया था जिसके बारे में [प्रे.का. 18:1–18](../act/18/01.md) में पढ़ा जा सकता है। कुरिन्थ कि कलीसिया को लिखे इस दूसरे पत्र में बहुत कम शब्दों में पौलुस कुरिन्थ की कलीसिया के साथ अपनी दूसरी भेंट कि चर्चा करता है जो अत्यधिक “दुखदायी” या “कष्टप्रद” थी। (देखें [2:1](../02/01.md)). इस “दुखदायी” भेंट के कुछ समय बाद तीतुस कुरिन्थ नगर गया उअर कलीसिया से भेंट की और पौलुस के पास मकिदुनिया में लौट आया (देखें [2:12–13](../02/12.md) और [7:6–7](../07/06.md)). संभवतः वह पौलुस के उस “कठोर पत्र” को लेकर वहाँ गया था। संभवतः यह तीतुस की वही यात्रा थी जिसका उल्लेख पौलुस [8:6](../08/06.md) और [12:18](../12/18.md), में करता है। यद्यपि इनमें से एक या दोनों पद तीतुस द्वारा इस पत्र, 2 कुरिन्थियों को ले जाने का उल्लेख कर सकते हैं \n\nपौलुस 2 कुएंथियों में उन दो यात्राओं का उल्लेख भी करता है जो अब तक नहीं की गई थीं, जब वह इस दूसरे पत्र को लिख रहा था। पहली, पौलुस ने तीतुस और दो गुमनाम विश्वासियों से आग्रह किया था कि वे कुरिन्थ की कलीसिया को लिखे उस पत्र, 2 कुरिन्थियों के लेकर वहाँ जाएं ([8:16–24](../08/16.md) और [9:3](../09/03.md)). दूसरी, पौलुस तीसरी बार कुरिन्थ की कलीसिया से भेंट करने की योजना बना रहा है। ([12:14](../12/14.md) और [13:1](../13/01.md)). आवश्यक होगा कि आप इन याराओं के अनुवाद में क्रिया काल और रूपों का यथोचित प्रयोग करें।विवरणों और अनुवाद के विकल्पों के लिए विशिष्ट पदों पर की गई टिप्पणियों का अवलोकन करें। \n\n### पौलुस व्यंगोक्ति और कटाक्ष का प्रयोग कैसे करता है? \n\nइस पत्र में अनेक स्थानों पर पौलुस व्यंग और कटाक्ष का प्रयोग करता है, जहां वह ऎसी बाते कहता है जिन्हें वह वास्तव में सच नहीं मानता है। वह अन्य मनुष्यों के दृष्टिकोण से कहता है और उनके विचार में जो सच है उसको उजागर करता है। ऐसा करने में उसका उद्देश्य है कि अन्य मनुष्यों के बातों पर प्रतिक्रिया प्रकट करे और सिद्ध करे कि वे मूर्खता है वरन निर्बुद्धि की हैं। ULT में प्रायः उन शब्दों को जिन्हें पौलुस सच नहीं मानता है अतः पौलुस उन्हें व्यंग के रूप में या कटाक्ष के रूप में प्रयोग करता है, उद्धरण चिन्हों में रखा गया है। UST में पौलुस के व्यंग और कटाक्ष का संकेत किसी और मनुष्य के शब्दों में व्यक्त किया गया है। विचार करें कि आप अपनी भाषा में व्यंग और कटाक्ष को कैसे प्रस्तुत करेंगे और पौलुस जहां-जहां व्यंग करता है वहाँ-वहाँ टिप्पणियाँ देखें। (देखें: [[rc://*/ta/man/translate/figs-irony]])\n\n### घमंड करने से पौलुस का तात्प र्य क्या है? \n\Nपौलुस की संस्कृति में हर एक गर्वोक्ति को बुरा नहीं कहा जाता था। उनकी गर्वोक्तियाँ बुरी भी होती थीं तो अच्छी भी होती थीं। इस पत्र में पौलुस व्याख्या करता है कि अच्छी गर्वोक्ति क्या है और वह कहता है कि उसका घमंड करना अच्छा है। उसकी बातों में निहित अर्थ है कि उसके विरोधियों का घमंड करनी अनिष्ट है। पौलुस के विचार में घमंड करने का सबसे उत्तम उपाय है, परमेश्वर के और उसके कामों के बारे में अच्छी-अच्छी बाते कहना। उसके विरोधी, अर्थात झूठे शिक्षक अपने ज्ञान पर घमंड करते थे उसके विचार में कुरिन्थ के विश्ववासियों से बातें करते समय ऐसा घमंड करना उसके लिए सर्वोचित नहीं है। वह ऐसा केवल इसलिए करता है कि उसके विरोधियों के प्रति प्रतिक्रिया प्रकट करे और कुरिन्थ के विश्वासियों पर स्पष्ट करे कि वह मसीह का एक सच्चा प्रेरित है। वह ऐसे घमंड को मूर्खता कहता है। विचार करें कि आप अच्छे और बुरे घमंड और मूर्खता कि गर्वोक्ति को कैसे व्यक्त करंगे। (देखें: [[rc://*/tw/dict/bible/kt/boast]])\n\n### इन अभिव्यक्तियों, “”मसीह में” और “प्रभु में” के उपयोग द्वारा पौलुस का अर्थ क्या है? \n\nपौलुस इस पत्र में बार-बार स्थानिक रूपक, “मसीह में” (मसीह के लिए दूसरे नाम के साथ जैसे, प्रभु या यीशु) का प्रयोग करता है। इस रूपक द्वारा बल दिया गया है कि विश्वासी मसीह के साथ ऐसे घनिष्ट सम्बन्ध में है जैसे कि वे उसके भीतर अवस्थित हैं। पौलुस का मानना है कि यह एक ऎसी सच्चाई है जो सब विश्वासियों के लिए है। कभ-कभी वह इस उक्ति, “मसीह में” का प्रयोग मात्र इस प्रयोजन के निमित करता है कि जो वह कह रहा है वह यीशु में विश्वास रखने वालों के लिए के लिए एक मूल तथ्य है। कहीं-कहीं ऐसा भी है कि वह मसीह के साथ एकता का प्रयोग कुछ कथनों या प्रबोधनों के कारक होने या आधार होने पर बलाघात हेतु करता है। “मसीह में” और समानार्थक कथनों के प्रकरण आधारित अभिप्राय को समझने के लिए विशिष्ट पदों पर की गई टिप्पणियाँ देखें। (देखें: [[rc://*/ta/man/translate/figs-metaphor]])\n\n### “भाइयों” शब्द का अनुवाद कैसे किया जाए? \n\nइस पत्र में अनेक बार पौलुस विश्वासियों को “भाइयों” कह कर सीधा संबोधित करता है या संदर्भित करता है। बहुवचन, “भाइयों” साथी विश्वासियों के लिए सामान्य रूप में प्रयोग किया गया है। जब “भाई” शब्द का प्रयोग एक वचन में किया गया है तो वह किसी निश्चित विश्वासी के लिए काम में लिया गया है और निश्चित रूप में किसी पुरुष के लिए। पौलुस इस शब्द का प्रयोग करता है क्योंकि वह विश्वासियों को एक ही परिवार के पुत्र-पुत्री स्वरुप घनिष्ट एकता में मानता है। विचार करें कि साथी विश्वासियों के लिए कौन सा शब्द या वाक्यांश सर्वोतम अभिप्राय प्रकट करेगा वरन इस विचार को भी दर्शाएगा कि विश्वासी एक परिवार स्वरुप घनिष्ट एकता में हैं। (See: [[rc://*/tw/dict/bible/kt/brother]])\n\n### “तुम” और “हम” का अनुवाद कैसे किया जाए? \n\nइस सम्पूर्ण पत्र में “तुम”, “तुम्हारा” “तुम्हारे” शब्द बहुवचन में हैं और कुरिन्थ के विश्वासियों के सन्दर्भ में प्रयुक्त हैं जब तक कि टिपण्णी में व्यक्त न किया गया हो कि “तुम” का रूप एक वचन में है और यह भी कि इस पत्र में आपको मानना होगा कि “हम”, “हारा” और “हमारे” शब्द पौलुस और उसके साथी प्रेरितों के सन्दर्भ में हैं परन्तु कुरिन्थ के विश्वासियों को समाहित नहीं करते हैं, जब तक कि टिपण्णी से प्रकट न हो कि “हम” शब्द में कुरिन्थ के विश्वासी भी समाहित हैं। कुछ विद्वानों के विचार में पौलुस कभी-कभी प्रथम पुरुष एकवचन का प्रयोग केवल अपने लिए करता है। अन्य विद्वानों के विचार में, पौलुस प्रथम पुरुष एकवचन का प्र्योग अपने लिए और साथी सेवकों के लिए करता है। अब पौलुस के अपने अर्थ को निश्चित करने के लिए हमारे पास कोई भी प्रमाण नहीं है। हमारा सुझाव तो यह है कि आप पौलुस द्वारा प्रथम पुरुष एकवचन और प्रथम पुरुष बहुवचन के इस प्रकार के प्रयोग को ज्यों का त्यों ही रखें। (देखें: [[rc://*/ta/man/translate/figs-yousingular]] और [[rc://*/ta/man/translate/figs-exclusive]])\n\n### 2 कुरिन्थियों की पुस्तक में प्रमुख बाधाएं क्या हैं? \n\nनिम्न लिखित पदों में प्राचीन हस्तलिपियों में एक से शब्द नहीं हैं। ULT में उन शब्दों का प्रयोग किया गया है जो अधिकाँश हस्तलिपियों में पाए जाते हैं। जब आप इन पदों का अनुवाद करते हैं तब आवश्यक है कि आप ULT कि तुलना उस किसी भी संस्करण से करें जिससे आपके पाठक परिचित हैं जिससे कि आपको समझने में सहायता मिले कि आपके पाठकों की अपेक्षा क्या है। वैकल्पिक शब्दों का प्रयोग तब ही करें जब तक कि उसके लिए कोई मुख्य कारण न हो, अन्यथा ULT के अनुसार ही करें। अधिक जानकारी हेतु इन पदों पर पाद टिप्पणी एवं टिप्पणियाँ देखें। (देखें: [[rc://*/ta/man/translate/translate-textvariants]])\n\n* “ऎसी पवित्रता” ([1:12](../01/12.md)). कुछ प्राचीन हस्तलिपियों में लिखा है, “सत्यनिष्ठा में” \n* “एक और दान” ([1:15](../01/15.md)). कुछ प्राचीन हस्तलिपियों में लिखा है, “दूसरा आनंद” ”\n* “सब बातें नई हो गई हैं” ([5:17](../05/17.md)). कुछ हस्तलिपियों में लिखा है, “सब कुछ नया हो गया है” \n* “मैं देखता हूँ”” ([7:8](../07/08.md)). कुछ प्राचीन हस्तलिपियों में लिखा है, “क्योंकि मैं देखता हूँ” अन्य हस्त लिपियों में लिखा है, “देखते हुए” \n* “और उस प्रेम में जो हम से रखते हो” ([8:7](../08/07.md)). कुछ प्राचीन हस्तलिपियों में है, “और हमारे लिए तुम्हारे प्रेम में” \n* “इस भरोसे के कारण” ([9:4](../09/04.md)). कुछ प्राचीन हस्तलिपियों में है, “घमंड करने कि इस दशा के कारण” मुझे घूंसे मारे कि मैं फूल न जाऊं” \n* ([12:7](../12/07.md)). कुछ प्राचीन हस्तलिपियों में है,जिससे कि वह मुझे घूंसे मारे” \n* “जितना बढ़कर मैं तुम से प्रेम रखता हूँ” ([12:15](../12/15.md)). कुछ प्राचीन हस्तलिपियों में है, “यदि मैं तुम से प्रेम रखता हूँ”\n* “[12] एक दूसरे को पवित्र चुम्बन से नमस्कार करो। सब पवित्र लोग तुम्हें नमस्कार कहते हैं। प्रभु यीशु मसीह का अनुग्रह और परमेश्वर का प्रेम और पवित्र आत्मा की सहभागिता तुम सब के साथ होती रहे” ([13:12–13](../13/12.md)). कुछ अनुवादों में इस वाक्यों को 2 पदों की अपेक्षा तीन पदों में विभाजित किया गया है: “[12] आपस में पवित्र चुम्बन से अभिवादन करो” [13] सब पवित्र जन तुम्हारा अभिवादन करते हैं” [14] हमारे प्रभु यीशु मसीह का अनुग्रह और परमेश्वर का प्रेम और पवित्र आत्मा कि सहभागिता तुम सब के साथ (हो)”" 1:intro tsh3 0 # 2 कुरिन्थियों: सामान्य टिप्पणियाँ \n\n## $1 एवं विन्यास शैली \n\n1. आरम्भ एवं आशीष वचन(1:1–2)\n2. पौलुस अपने कष्टों में ढाढ़स बंधाने के लिए परमेश्वर कि स्तुति करता है (1:3–11)\n3. Iयात्रा कि योजना में बाधा (1:12–2:13)\n * बाधा और उसके कारण (1:15–2:4)\n\nपहला गद्यांश प्राचीन मध्य एशिया की पत्र लेखन की आरंभिक शैली को दर्शाता है \n\n## इस पत्र में विशिष्ट अवधारणाएं \n\n### ढाढ़स \n\Nढाढ़स इस अध्याय का प्रमुख विषय है। पौलुस कहता है कि विश्वासियों को कष्टों का सामना करना पड़ता है क्योंकि वे यीशु के हैं। जब ऐसा होता है तब पवित्र आत्मा उनको ढाढ़स बंधाता है। इस प्रकार वे भी अन्यों को ढाढ़स बंधाने में सक्षम होते हैं। पौलुस कुरिन्थ के विश्वासियों को बोध कराना चाहता है कि वह भी भयानक उत्पीड़न से अछूता नहीं है परन्तु परमेश्वर ने सदैव ही उसको बचाया है वरन उसको सांत्वना भी दी है। वह उनको इस बात का भी बोध कराना चाहता है कि परमेश्वर उनके साथ भी ऐसा ही करेगा। ### पौलुस की सत्यनिष्ठा \n\Nस्पष्टतः कुरिन्थ के विश्वासी पौलुस की आलोचना करते हुए कहते थे कि वह सत्यवादी नहीं है और कुरिन्थ के विश्वासियों के प्रति उसमें चिंता का कोई भाव नहीं है। इसलिए पौलुस प्रतिवाद में अपने उद्देश्यों को स्पष्ट करता है।\n\n## इस अध्याय में महत्वपूर्ण अलंकार\n\n### उत्तर अनापेक्षित प्रश्न\n\n 1:17 में पौलुस दो उत्तर अनापेक्षित प्रश्न पूछता है कि उस पर लगाए गए अनिष्ठा के दोष पर अपना प्रतिवाद प्रस्तुत करे। (देखें: [[rc://*/ta/man/translate/figs-rquestion]])\n\n### रूपक रूप में “हाँ और नहीं”\n\n1:17-20 में पौलुस “हाँ” और “नहीं” शब्दों का संयोजित उपयोग करता है जिसके माध्यम से वह किसी ऐसे मनुष्य के स्वभाव और भाषा को प्रकट करता है जो अस्थिर चित मनुष्य और किसी भी काम को करने के लिए अपने विचार बदलता रहता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ विश्वासी पौलुस पर ऐसा ही मनुष्य होने का दोष लगा रहे थे। परन्तु वह स्पष्ट करता है कि वह ऐसा मनुष्य नहीं है। वह तो परमेश्वर का अनुकरण करता है जो सदैव निष्ठावान है और यीशु का जो परमेश्वर कि सब प्रतिज्ञाओं निष्ठापूर्वक पूरा करता है।\n\n## इस अध्याय में अनुवाद की अन्य समस्याएँ \n\n### प्रतिभूति स्वरूप पवित्र आत्मा \n\n 1:22 में पौलुस कहता है कि पवित्र आत्मा परमेश्वर कि सब प्रतिज्ञाओं का दायित्व निभाता है जिसमें परमेश्वर के साथ अनंत जीवन भी है। यह “प्रतिभूति” शब्द व्यावसायिक संबंधों में काम में आता है जिसमें मनुष्य किसी को मूल्यवान वस्तु देता है जो इस बात की प्रतिभूति है कि वह ऋण की सम्पूर्ण राशि लौटा देगा। इस विचार को प्रकट करने के लिए अन्य शब्द हो सकते हैं, “वचन देना” या “बयाना।“ पौलुस इस विचार के द्वारा वर्णन करता है कि विश्वासी पवित्र आत्मा से आशिशें प्राप्त तो करते ही हैं, उन्हें यह विश्वास भी हो जाए कि मरणोपरांत भी वे परमेश्वर कि सब आशीशों के वारिस होंगे। (देखें: [[rc://*/tw/dict/bible/kt/eternity]] and [[rc://*/tw/dict/bible/kt/save]])\n\n### परमेश्वर गवाह है \n\n1:23 में पौलुस परमेश्वर का आव्हान करता है कि वह उसके चरित्र की पवित्रता की गवाही दे कि वह कुरिन्थ के विश्वासियों के प्रति सत्यनिष्ठ एवं निष्ठावान है। संभवतः पौलुस इस शब्द को शपथ रूप में काम में लेता है जिसमें अपेक्षा की गई है कि परमेश्वर पौलुस के शब्दों का गवाह हो और यदि वह झूठ कह रहा है तो उसे प्रभावी रूप से दंड दे या उसे मार डाले। दूसरे शब्दों में, उसका अभिप्राय है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा के माध्यम से कुरिन्थ के विश्वासियों के समक्ष पौलुस कि सत्यनिष्ठा कि पुष्टि करे। 1:1 mel3 rc://*/ta/man/translate/figs-explicit Παῦλος & τῇ ἐκκλησίᾳ τοῦ Θεοῦ τῇ οὔσῃ ἐν Κορίνθῳ 1 आपकी भाषा में पात्र के लेखक और उसके पत्र लक्षित प्राप्तिकर्ताओं के परिचय हेतु अपनी ही विशिष्ट भाषा शैली होगी उदाहरणार्थ, आप संकेत देना चाहें कि यह पत्र है। वैकल्पिक अनुवाद: “मुझ पौलुस ने ... तुम्हें, कुरिन्थ में परमेश्वर की कलीसिया को यह पत्र लिखा है” 1:1 f59u rc://*/ta/man/translate/figs-exclusive Τιμόθεος ὁ ἀδελφὸς 1 **हमारे** शब्द में कुरिन्थ के विश्वासी भी समाहित हैं। मूल लिपि में केवल “भाई” शब्द है परन्तु अंग्रेजी भाषा में आवश्यक है, इसलिए “हमारे” शब्द को जोड़ा गया है। अपनी भाषा में सर्वाधिक व्यावहारिक रचना शैली काम में लें। (देखें: [[rc://*/ta/man/translate/figs-exclusive]])